
जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौतियां दिनों दिन बढ़ती ही जा रही हैं। वर्तमान में यह दुनिया भर के सभी क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा है। बढ़ते समुद्री जल के स्तर और मौसम के बदलते पैटर्न ने हज़ारों लोगों के जीवन को प्रभावित किया है। दुनियाभर के तमाम प्रयासों के बावजूद भी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि जारी है और विशेषज्ञों को उम्मीद है कि आने वाले कुछ वर्षों में पृथ्वी की सतह का औसत तापमान काफी तेज़ी से बढ़ेगा एवं समय के साथ इसके दुष्प्रभाव भी सामने आएंगे।
इन्हीं समस्याओं से निपटने के लिए साल 2015 में विश्व के 195 देशों की सरकारें फ्राँस की राजधानी पेरिस में इकट्ठा हुईं और वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से जलवायु परिवर्तन पर एक नए वैश्विक समझौते को संपन्न किया, जो जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करने की दृष्टि से एक प्रभावी कदम होगा।
भारत पेरिस समझौते को लेकर कितना गंभीर है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ठीक इसी साल अंतराष्ट्रीय सौर गठबंधन की स्थापना करके अपनी प्रतिबद्धता को और पुख्ता किया। साल 2030 को आने में बहुत ज्यादा वक़्त नहीं बचा है ये वही साल है जब भारत को पेरिस समझौते के तहत 30 से 35 प्रतिशत कार्बन का उत्सर्जन कम करना है।
इसी साल नवम्बर में जब सीओपी-21( कॉन्फ्रेंस ऑन पार्टीज) की बैठक होगी और उन सभी देशों से रिपोर्ट मांगी जाएगी जिन्होंने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाई थी।
2020 के अंत में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि भारत पूरी तरह पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट के तहत प्रतिबद्ध है और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लगातार प्रयास कर रहा हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक भारत दुनिया का सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश बन जाएगा। अभी दुनिया में सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन अमेरिका करता है उसके बाद चीन और भारत का स्थान तीसरा है। पेरिस समझौते के तहत 1.5 से 2 डिग्री से अधिक दुनिया तापमान नहीं बढ़ने देना विश्व के देशों की जिम्मेदारी होगी। कार्बन का अधिक उत्सर्जन यानी पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी और नतीज़तन छोटे देशों के अस्तित्व पर संकट।

हिन्द महासागर में स्थित मालदीव ऐसा ही एक छोटा सा देश है जो समुद्र के जलस्तर बढ़ने से पूरा डूब जाएगा।
कोप-21 की मीटिंग शुरू हो उससे पहले ही सदस्य देश अपना-अपना होमवर्क करने में जुट गए हैं। भारत नें 2015 में ही अंतराष्ट्रीय सौर गठबंधन की स्थापना कर के अपना काम करना शुरू कर दिया था। आईएसए दुनिया का सबसे बड़ा सौर गठबंधन है जिसमे 121 देश शामिल हैं।
अब बात आती है सड़को से प्रदूषण कम करने की क्योंकि सौर ऊर्जा से बाकी कामो के लिए तो ऊर्जा मिल जाएगी लेकिन वाहनों के लिए क्या इंतजाम किये जाएं कि कार्बन उत्सर्जन को कम किया जा सके। इसके लिए दो उपाय किये जा सकते हैं एक तो बायो ईंधन और दूसरा इलेक्ट्रिक से चलने वाले वाहन जिनमें चार पहिया वाहन प्रमुख हैं जैसे कारे आदि।
बायो ईंधन के लिए भारत में नेशनल पॉलिसी ऑन बायो फ्यूल जून 2018 में बनाई गई थी जिसके तहत पेट्रोल में 20 प्रतिशत इथेनॉल और 5 प्रतिशत बायो डीजल 2030 तक मिलाना अनिवार्य किया गया है। भारत को अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए इतना काफी नहीं है इसके लिए इलेक्ट्रिक वाहनों को सड़कों पर उतरना ही पड़ेगा।

भारत को तगड़ा झटका 2017 में लगा था जब इलेक्ट्रिक कार विनिर्माता अमेरिकी कंपनी टेस्ला चीन में अपना पहला प्लांट लगाने चली गई थी। समय बड़ा बलवान होता है इसका जीता जागता उदाहरण इसी मामले में देखा जा सकता है। साल 2019 के अंत में चीन से ही कोरोना वायरस की शुरुआत हुई और अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध भी अपने चरम पर पहुँच चुका था जिसके तहत जापान, अमेरिका, ब्रिटेन की कंपनियां चीन से निकलने लगी और उन्हें विकल्प के रूप में नजर आया भारत। अब टेस्ला भारत में अपनी फैक्ट्री स्थापित करेगी और साउथ ईस्ट एशिया में अपनी कारे बेचेगी।
टेस्ला की इलेक्ट्रिक कारे भारत के लोगों के हिसाब से सटीक नहीं है इसलिए घरेलू कंपनी टाटा मोटर्स नें ऐसी कारें डिज़ाइन करने का एलान किया है जिसे मध्यम आय वर्ग भी खरीद सके। इलेक्ट्रिक कार बनाने के लिए भारत के सामनें दो बड़ी चुनौतियां हैं एक लीथियम आयन बैटरी और दूसरा चार्जिंग पॉइंट। लीथियम के भण्डार लैटिन अमेरिकी देशों में हैं जिसके आयात के लिए भारत सरकार नें समझौता कर लिया है। अब बात आती है कारों को चार्ज करने के लिए चार्जिंग पॉइंट्स की, इसके लिए टाटा मोटर्स नें कहा है कि वह ऐसी करें बनाएगा जो एक बार चार्ज करने के बाद 200 किलोमीटर तक चल सकेगीं। अब यह जिम्मेदारी सिर्फ टाटा मोटर्स की ही नहीं बल्कि उन सभी ऑटोमोबाइल कंपनियों की है जो अभी तक सिर्फ डीजल और पेट्रोल से चलने वाली कारे ही बनाती आई है। आशा है आने वाले कुछ वर्षों में सड़को से शोर और प्रदूषण दोनों कम होता नजर आएगा।
आलेख – आराधना शुक्ला