संपत्ति विभाग औऱ अदालतों की चौखट पर गुजरती जिंदगी! विशेष आलेख “बंटवारा”!

आज आपको बिजली विभाग के इंजीनियर यशपाल सिंह जी की कहानी सुनाता हूं जो मुक़दमा लड़ते लड़ते ही दुनिया से चले गए लेकिन फ़िर भी उनके सगे भाईयों को चैन नहीं मिला। यशपाल का जन्म बलिया के एक गांव में हुआ था। वो अपने माता- पिता की बड़ी संतान थे लेकिन पिता का साया बचपन में ही सर से उठ जाने की वजह से छोटे भाई बहनों की ज़िम्मेदारी भी वहन करनी थी। परिवार का पूरा बोझ कम उम्र में ही यशपाल जी के कंधे पर आ पड़ा था। वो पढ़ने में भी तेज़ थे सो किसी तरह पढ़ लिख कर सरकारी इंजीनियर की नौकरी तो मिली लेकिन नौकरी ने उनका गांव ही छुड़ा दिया।

यशपाल ने गांव छोड़ने से पहले अपनी ज़िम्मेदारी को भी भरपूर निभाया। उन्होंने नौकरी करते हुए भाई बहनों को पढ़ाया लिखाया लेकिन मां सरस्वती का वरदान पाना सबके बूते की बात नहीं। यशपाल के भाई बहनों का मन पढ़ने लिखने में था ही नहीं। निराश यशपाल ने पहले खुद शादी की फ़िर सभी भाई बहनों का घर बसा दिया। यशपाल सरकारी नौकरी में थे पत्नी बच्चों संग गांव से दूर रहने को मज़बूर थे। हां उन्होंने ज़मीन जायदाद का बंटवारा भी बराबर बराबर कर दिया। यशपाल  ने सोचा बेरोज़गार भाई खेती किसानी से अपने परिवार को पाल लेंगे लेकिन यशपाल की सोच ग़लत निकली। यशपाल के भाइयों के हाथ तो जैसे खज़ाना लग चुका था। वो चाहते तो मेहनत मज़दूरी ही कर लेते लेकिन वो तो कामचोर थे। एक एक कर पुरखों की ज़मीन को बेंचते चले गए।

यशपाल ने उन्हें बहुत समझाया पुरखों का वास्ता भी दिया लेकिन कोई असर नहीं हुआ। भाइयों को तो मुफ़्त के माल का चस्का लग चुका था। ज़मीन बेंचकर रोज़ मुर्गा दारू की पार्टी होने लगी। थकहार के यशपाल अपने परिवार बच्चों में मशगूल हो गए। उन्होंने गांव जाना भी कम कर दिया जिसका फ़ायदा भाई उठाने लगे। यशपाल की ज़मीन पर अब भाइयों की नज़र थी। वो यशपाल की ज़मीन कब्ज़ा करने लगे। किसी ने मकान बनवा लिया तो किसी ने ज़मीन पर खेती ही शुरू कर दिया तो किसी ने बच्चों की पेट का वास्ता देकर खेती की ज़मीन ही हथिया ली। यशपाल पढ़े लिखे होकर परिवार कुल की इज़्जत को लेकर चिंतित थे। वो भाइयों को समझाते और अपने बच्चों का वास्ता देकर ज़मीन वापस मांगते तो भाई उनका मर्म समझने की बजाय उनके संग मारपीट पर उतारू हो जाते। सोचिए जिस यशपाल ने भाइयों को बच्चों की तरह पाला वही भाई ज़मीन की हवस में उनके दुश्मन हो गए। यशपाल ने अपना भाई का धर्म तो निभाया लेकिन उनके भाई स्वार्थ में पूरे  अंधे हो चुके थे।

यशपाल की अंत समय में पुरखों के घर लौटने की ख्वाहिशों का अपने ही गला घोंटते रहे। हारकर बेबस, लाचार यशपाल को अपनी ही ज़मीन पर हक पाने के लिए अदालत की शरण लेनी पड़ी। यशपाल का एक पैर अब अपने कार्यालय में तो दूसरा अदालत की चौखट पर होता। उनकी ज़िंदगी का चैन छीन चुका था। एक तरफ़ बच्चों को अच्छी शिक्षा की फ़िक्र दूसरी और अधिकार की लड़ाई। यशपाल भाग कर तारीख पर अदालत पहुंचते तो पता चलता आज न्यायदाता ही कुर्सी से लापता हैं तो कभी वकील साहब ही चेंबर से लापता हैं। कई बार तो फ़ैसले की आस जगी तो किसी की यकायक निधन ने अदालत को ठप्प कर दिया। यशपाल दूसरी दुनिया के जीव सरीखे से भी लगते थे मसलन न्यायदाता को कुछ ले देकर भी सेटिंग का रास्ता बिचौलिए बताते तो यशपाल साफ़ मना कर देते।

यशपाल अदालत के चक्कर लगाते कब नौकरी से रिटायर्ड हो गए उन्हें भी अहसास नहीं हुआ। शरीर उनका अब कमज़ोर पड़ने लगा था लेकिन अदालत का चक्कर छूट नहीं रहा था। कई बार तो रात को बिस्तर पर  उठकर वो अदालती कार्यवाही का ज़िक्र करने लगते। यशपाल के लिए राहत की बात बस ये थी कि उनके बेटे भी बड़े होकर उनकी तरह नौकरी पा चुके थे। अब वो पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगे थे जिसका असर भी हुआ। यशपाल की पक्ष में फ़ैसला आने लगा। यशपाल को राहत मिली लेकिन तब तक यशपाल का अंत समय भी आ गया। यशपाल ज़मीन के लिए लड़ते लड़ते ही चले गए। यही नहीं उनके भाइयों में भी अब वो ताकत नहीं रही। अदालत के चक्कर लगाने की बारी अब बच्चों की थी।

इस कहानी का आशय बस इतना है कि कोई किसी की संपति को हथिया तो सकता है लेकिन अपने नाम नहीं कर सकता है। एक न एक दिन फ़ैसला सही के हक में ही आता है लेकिन फ़िर भी लोग मानते नहीं हैं। स्वार्थ, लालच में पड़कर रिश्तों का क़त्ल तो करते ही हैं अपना और अदालत का भी समय बर्बाद करते हैं। जिन लोगों को भी लगता है कि नहीं हम मुकदमें बाज़ी से सामने वाले को परास्त कर देंगे उन्हें अपने ज़िले की अदालत में एक बार अवश्य जाना चाहिए। जहां ज़्यादातर उम्र के अंतिम पड़ाव वालों का समूह ही मिलेगा। जो पूरी ज़िंदगी को न्याय की आस में खपा चुके होते हैं फ़िर भी वो मौत की दहलीज से अपनी नस्ल के लिए इंसाफ़ का जज़्बा नहीं छोड़ पाते हैं।

आप समझ चुके होंगे यदि संपति का बंटवारा करते समय ही यशपाल ने भाइयों संग रिश्ता प्रैक्टिकल कर लिया होता। समय रहते भाइयों पर अविश्वास कर नकेल कसी होती। उन्हें अपनी ज़मीन पर कब्ज़े का अधिकार न दिया होता। भाइयों के घड़ियाली आंसूओं को पहचान लिया होता तो शायद यशपाल को घूंट घूंट कर न मरना पड़ता।

आलेख – अश्विनी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *