
सरकारी व्यवस्थाएं ही दे रही हैं जातिवाद को बढ़ावा:
सरकारी नौकरियों में जाति के आधार पर आरक्षण ,संविदा की नौकरियों में भी जाति के आधार पर आरक्षण, शिक्षा व्यवस्था स्कूल कॉलेज में भी जाति के आधार पर आरक्षण, सरकारी योजनाओं में भी जाति के आधार पर आरक्षण गरीबों भूमिहीनों को सरकारी जमीन और मकान देने में भी जाति के आधार पर आरक्षण,, लोकसभा विधानसभा नगर निगम नगर पालिका यहां तक कि पंचायत चुनाव में भी जाति के आधार पर सीटों का आरक्षण आखिरकार देश में न्याय समानता और मानवता की व्यवस्था लागू है या फिर जातिवाद की?
सरकार खुद ही देश के हर नागरिक को जाति और धर्म का उल्लेख सरकारी दस्तावेजों में करने के लिए बाध्य करती है और उसके बाद बड़े-बड़े नेता भाषण देते हैं कि देश में जातिवाद कैसे खत्म होगा ? जब देश का कानून और देश की सरकारी व्यवस्था ही लोगों की गरीबी और कमजोरी के आधार पर नहीं बल्कि जातियों के आधार पर जन्म के आधार पर भेदभाव करती हैं तो सामाजिक समरसता बराबरी समानता जैसे शब्द भारत में कब अपना अर्थ ढूंढ पाएंगे ?
डॉक्टर अंबेडकर का मत, मंडल आयोग और वीपी सिंह:

देश के संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर लंबे समय के लिए आरक्षण की बैसाखी के विरोधी थे उन्होंने केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए ही मात्र 10 वर्ष के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू करने की बात कही थी उनका तर्क था कि 10 वर्षों में एससी एसटी समाज के लोग इतना आगे बढ़ जाएंगे कि वह देश की मुख्यधारा में शामिल हो जाएंगे प्रतिस्पर्धा और अवसरों में समानता के दायरे में आ जाएंगे । डॉक्टर अंबेडकर के जमाने में पिछड़े वर्गों का तो कोई कांसेप्ट ही नहीं था उस समय sc-st को छोड़कर सभी लोग सामान्य वर्ग माने जाते थे । देश में 80 के दशक में कई जातियों को सूचीबद्ध कर के पिछड़े वर्ग की राजनीति को एक नया रूप दिया गया। मंडल आयोग का गठन किया गया और सिफारिशें मांगी गई तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करके अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए देश में आरक्षण लागू कर दिया जिसके बाद जाति आधारित आरक्षण जो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए लगभग 23% था वह ओबीसी के लिए 27% और बढ़ाया गया यानी लगभग 50% के ऊपर चला गया वीपी सिंह के प्रधानमंत्री रहते जाति आधारित ओबीसी आरक्षण का जमकर विरोध हुआ था देश में बहुत से नौजवानों ने आत्महत्या भी कर ली थी लेकिन वोट बैंक के मुनाफे के आगे सरकार अडिग थी । हालांकि ओबीसी आरक्षण देने के बावजूद राजपूत राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह को ओबीसी समाज का समर्थन नहीं मिला और उनका राजनीतिक पतन होता गया।
समानता के लिए आया आरक्षण अब वर्ग विभेद का कारण बना:

भारत में अब जाति आधारित आरक्षण का मुद्दा चुनावी वोट बैंक का मुद्दा बन चुका है जिसको लेकर एक ही देश के नागरिकों से उनकी जाति और जन्म के आधार पर सरकारी तंत्र अलग अलग व्यवहार करता है।
पिछले दिनों भाजपा से जुड़े पिछड़े वर्गों के नेता भूपेंद्र यादव और अनुप्रिया पटेल ने ओबीसी समाज से आने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर दबाव बनाकर मेडिकल प्रवेश परीक्षा में भी पिछड़े वर्गों का 27 फ़ीसदी और ईडब्ल्यूएस का दसवीं भी आरक्षण आखिरकार लागू ही करवा दिया जबकि अभी तक मेडिकल में केवल sc-st और दिव्यांगों को ही आरक्षण मिलता था राष्ट्रीय मेडिकल प्रवेश परीक्षा “नीट”में अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए जाति के आधार पर 27 फ़ीसदी और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए 10 फ़ीसदी आरक्षण कि केंद्र के नरेंद्र मोदी सरकार ने घोषणा कर दी है जिसके बाद पिछड़े वर्गों सूचीबद्ध जातियों में तो बीजेपी का वोट बैंक और मजबूत हो गया है लेकिन सामान्य वर्गों में नाराजगी जाहिर तौर पर देखी जा रही हैl
सभी वर्गों के गरीबों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की मांग:

मेडिकल पढ़ाई के लिए आयोजित होने वाली प्रवेश परीक्षा नीट में अभी तक अनुसूचित जाति और जनजाति को जा रहा था लगभग साढे 22% आरक्षण दिया जा रहा था मेडिकल क्षेत्र में योग्यता की जरूरत को ध्यान में रखते हुए इस में ओबीसी आरक्षण अभी तक नहीं शामिल किया गया था लेकिन मोदी सरकार ने केंद्रीय मंत्री बीजेपी नेता भूपेंद्र यादव अनुप्रिया पटेल और ओबीसी सांसदों के दबाव में ओबीसी का 27 परसेंट और ईडब्ल्यूएस का 10 परसेंट यानी 37% आरक्षण बढ़ाए जाने की घोषणा कर दी। लेकिन इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी की जमकर आलोचना की जा रही है कहा जा रहा है की अब मेडिकल पढ़ाई में लगभग 60 फ़ीसदी आरक्षण हो गया है यानी सामान्य वर्ग के लोगों के लिए केवल 40 फ़ीसदी सीटें बची हैं और उन 40% सीटों में भी आरक्षित वर्गों के लोग प्रतिस्पर्धा कर सकते हैंl बहुत से सोशल मीडिया यूजर्स यह कह रहे हैं कि एक तरफ देश में समानता और न्याय की बात होती है दूसरी तरफ जाति और धर्म के आधार पर आरक्षण और सरकारी योजनाओं का लाभ देने की बात होती है यह शर्मनाक है और संविधान का मजाक है यदि किसी की मदद करनी है तो उसकी गरीबी और कमजोरी के आधार पर मदद की जानी चाहिएl लंबे समय से मांग हो रही है कि जाति के आधार पर आरक्षण न देकर सभी वर्गों के गरीबों को आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाए और एक परिवार को एक ही बार आरक्षण का लाभ मिले। क्योंकि कई बार ऐसा देखा जा रहा है कि आरक्षित वर्ग के एकही परिवार के कई लोग सरकारी नौकरियों में आ जाते हैं और उसी आरक्षित वर्ग के बहुत से कमजोर लोगों के परिवारों में एक भी सरकारी नौकरी नहीं है वहीं सामान्य वर्गों के बहुत से परिवारों में दयनीय स्थिति होने के बावजूद उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता।
तो क्या तीसरे दर्जे के नागरिक बन जाएंगे सामान्य वर्गों के लोग

सोशल मीडिया पर सामान्य वर्गों के कुछ ग्रुप है जिन पर कहा जा रहा है कि बीजेपी सरकार सामान्य वर्गों को देश में तीसरे दर्जे का नागरिक बनाने पर उतारू है । फेसबुक ग्रुप भारतीय विकास मंच पर यूजर संजय रतन सिंह लिखते हैं “भाजपा सरकार में हम सवर्ण तीसरे दर्ज के दर्जे के नागरिक बन जाएंगे कारण है एकजुट ना होना” ।
तमाम तर्क दिए जा रहे हैं समाज में भी चर्चा हो रही है कि सामान्य वर्गों में भी गरीबों की बड़ी संख्या है और उन्हें सरकारी योजनाओं से लगातार वंचित किया जा रहा है सरकारी नौकरियों में भी उनका प्रतिशत घट रहा है कुछ लोग सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि देश में प्रतिभाओं को दबाया जा रहा है प्रतिभाशाली युवाओं का दमन हो रहा है और आरक्षण वालों कम योग्यता और कम अंकों के बावजूद बड़े पदों पर बैठाया जा रहा है नेता लोग तो अपना इलाज विदेशों में कराएंगे और जनता का इलाज आरक्षण से बने डॉक्टरों से कराएंगेl
ओबीसी में खुशी लेकिन सामान्य वर्गों की नाराजगी, बीजेपी परेशान।

राजनीतिक जानकारों के मुताबिक अन्य पिछड़ा वर्गों में अपनी पकड़ और मजबूत करने के लिए भाजपा ने जो दांव चला है उससे सामान्य वर्गों में उनकी पकड़ कमजोर हो सकती है फिलहाल भाजपा नेता लोगों को समझाने में जुटे हैं कि पिछले कुछ वर्षों में केंद्र सरकार ने देश में मेडिकल सीटों में भारी वृद्धि की है ऐसे में सामान्य वर्गों को लगभग उतनी सीटें उपलब्ध हो जाएंगी जितनी 2014 के पहले होती थी बीजेपी वालों का दावा है कि देश में तमाम नए मेडिकल कॉलेज बने हैं जिसके बाद मेडिकल सीटों में वृद्धि हुई है। लेकिन समाज में जाति के आधार पर आरक्षण का विरोध करने वाले स्वर मुखर हो रहे हैं लोगों की मांग है कि आरक्षण आर्थिक आधार पर दिया जाए आर्थिक स्थिति बेहतर होते ही व्यक्ति की सामाजिक स्थिति अपने आप बेहतर हो जाती है।
लेकिन भारत में तो राजनीति की कड़वी सच्चाई यही है कि आदर्श न्याय और समानता की बातें चाहे जितनी की जाए सियासी फायदे के लिए राजनीतिक दलों ने देश और समाज को एक ऐसी प्रयोगशाला में बदल दिया है जहां अपने लाभ के लिए ऐसे जहरीले रसायन प्रयोग किए जाते हैं जिससे सामाजिक समरसता झुलस जाती है जातियों और वर्गों में एकजुटता की बजाय विभाजन और नफरत को बढ़ावा मिलता है वोटों के समीकरण के लिए कुछ जातियों को उठाया जाता है कुछ जातियों को दबाया जाता है कई बार धर्म भाषावाद और क्षेत्रवाद के भी खतरनाक प्रयोग किए जाते हैं । समाज और देश को इन सियासी चालबाजियों से भले ही कितना नुकसान हो लेकिन राजनीतिक दलों के लिए तो सियासी मुनाफा और सत्ता का आनंद ही सबसे बड़ा राजधर्म है।
पॉलिटिकल डेस्क: दा इंडियन ओपिनियन