????कुर्सी के लिए परेशान देश के कुछेक नेता सभ्य भाषा से कंगाल तो हो ही चुके हैं, अलबत्ता वोटरों को लुभाने के लिए अपनी मेहनत की जीवन पर्यंत खाने वाले सम्मानित चौकीदारों का पदनाम भी उनके सियासी निशाने पर आ गया है? देश में चुनावी चौकीदारों की बाढ़ सी आ गई है। चुनाव खत्म हो जाएगा ऐसे सभी चौकीदार सियासी जमीदार बन जाएंगे। इन्हे चौकीदारों के दर्द से मतलब नही है। चिंता है चुनाव की। फिलहाल जनता भी नेताओं की शाब्दिक नौटंकी को देखने और सुनने के लिए विवश है।
चुनाव के समय देश के बड़े राजनेता कुर्सी पाने के लिए ऐसे ऐसे नए शब्दों को गढ़ लेते हैं कि उसे सुनकर के आश्चर्य बढ़ जाता है ।इस समय देश की राजनीति में चौकीदार शब्द पर खूब कसरत हो रही है ।भाजपा के लोग अथवा उनके समर्थक अपने आगे चौकीदार लगाने को बेताब है ।भले ही उन्होंने अपने आसपास दिख रहे चौकीदारों को कभी वास्तविक सम्मान ना दिया हो। लेकिन चुनाव का वक्त है चौकीदार बनने में कोई परेशानी नहीं है ।बड़के नेता बोले सभी लोग चौकीदार बन जाओ तो अब चौकीदार बनने वालों की बाढ़ आ गई है। चौकीदारों की बढ़ती हुई फौज को देख कर व्यापारी एवं शैक्षिक तथा प्रशासनिक संस्थानों में चौकीदारी करने वाले चौकीदार परेशान हो गए! ऐसा लगता है जैसे चौकीदारों की रोजी-रोटी पर चुनावी चौकीदारों ने तलवार घुमाने शुरू कर दी हो! वरिष्ठ चौकीदारों के द्वारा दूसरे चौकीदारों को समझाना जारी है। परेशान मत हो ,चुनावी चौकीदार हैं जो चुनावी नदी में उतरा रहे हैं। जैसे चुनाव खत्म हो जाएगा यह सियासी जमीदार बन जाएंगे। सांसद का पद पाकर असरदार बन जाएंगे। इनमें से ज्यादातर को ना तो चौकीदारों से मतलब रहेगा और ना ही आम जनता से?
देश में सम्मानित चौकीदारों की एक लंबी फौज है। यह वही चौकीदार हैं जो जागते रहो का शोर रात में मचाते हैं। देश के नागरिकों को अपनी सुरक्षा के प्रति जागरूक करते हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सस्ती भाषा का प्रयोग किया। उन्होंने देश के प्रधानमंत्री को चौकीदार चोर है कहना शुरू कर दिया। श्री गांधी को इससे बचना चाहिए था ।वह मोदी जी पर हमला करते हुए इतना सोचते कि नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। खैर राजनीत में शब्द हमेशा स्वार्थ के चलते हैं।इन्हें बेशर्मी की खाल ओढ़ लेती है। चौकीदार चोर है का नारा देश में गूंजता रहा। लोकसभा का चुनाव आया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एकाएक भाजपा में चौकीदारों की बाढ़ आ गई। अर्थात भाजपा ने कांग्रेसी चौकीदार चोर है के नारे का जवाब देने के लिए चौकीदार शब्द को ही चुन लिया। अब आप देखिए भाजपा का नेता छोटा हो या बड़ा अपने आगे चौकीदार लगाने को उतावला है। कई तो चौकीदार रूपी गंगा में नहा चुके हैं कई इसके लिए तैयार है।
देश के नेताओं से मेरा एक सवाल है। कभी किसी रात भर जागने वाले मेहनती चौकीदार से उसका दर्द पूछा है, क्या बीते 5 वर्षों में अपने को देश का चौकीदार कहने वाले प्रधानमंत्री जी ने कभी चौकीदारों की परेशानियां क्या है इस पर बैठकर चर्चा की है, क्या देश के भाजपा विरोधी नेताओं ने चौकीदारों की दीन दशा के बारे में जाने का प्रयास किया है ?कांग्रेस एवं गैर भाजपाई नेता चौकीदार चोर कह रहे हैं तो दूसरी ओर भाजपा एवं उनके सहयोगी दलों के नेता चौकीदार कहने में गर्व महसूस कर रहे हैं ।लोकसभा के चुनाव में सत्ता हासिल करने के लिए पवित्र चौकीदार पदनाम को राजनीत में खींच कर कहीं न कहीं इसका अपमान किया गया है पक्ष अथवा विपक्ष को चौकीदार शब्द को चुनाव में प्रयोग में तब लाना चाहिए था जब यह लोग चौकीदारों से आत्मिक दारोमदार रखते।
बड़े-बड़े नेताओं के बंगलों की रखवाली करने वाले चौकीदार की हालत क्या है। किसी से छिपी नहीं है। नेताओं ,अधिकारियों अथवा कोई भी बड़ा आदमी जब महंगी गाड़ियों में निकलता है तो यही चौकीदार सलाम करता है। घमंड में चूर ऐसे कई इस सलाम का जवाब दिए बिना निकल जाते हैं। देश की राजनीति में सस्ता प्रचार जारी है।
इस दौरान चौकीदार का जलवा है? तो वहीं अब दूध वाला शब्द भी धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है! पिछले चुनाव में चाय वाला शब्द ने खूब धूम मचाई। अब देखिए आगे-आगे अब जाति वालाआएगा, फिर धर्म वाला आगे आएगा, फिर भाषा वाला आगे आएगा। अर्थात समाज को बांटने की कोई भी कसर वोटों को हासिल करने के लिए देश के सियासतदान नहीं छोड़ेंगे ।।
कभी-कभी तो आज के नेताओं की प्रचार शैली को देख कर के हमारे लोकतंत्र का सिर शर्म से झुक जाता है। चौकीदार अपने नाम के आगे लगा लेने से कोई चौकीदार नहीं बन जाता। चौकीदार बनने के लिए नींद को दबाना पड़ता है, शारीरिक जोखिम उठाना पड़ता है, कम खर्च में बच्चों को अथवा अपने परिजनों को पालना पड़ता है, सस्ते कपड़ों में जीवन गुजारना पड़ता है, अपने से बड़ों की अथवा अधिकारियों की गालियां सुननी पड़ती है, नाहक की है हुजूरी करनी पड़ती है, साहब के बच्चों को खिलाना पड़ता है, कहीं-कहीं तो झाड़ू लगाना पड़ता है। चौकीदारों का दर्द देश के नेता नहीं समझ सकते जो महंगी गाड़ियों में चलते हैं और वातानुकूलित कमरों में बैठते और मौज करते हैं। चौकीदार का दर्द केवल और केवल चौकीदार ही समझ सकता है। यह मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं किसी दल का विरोध नहीं कर रहा हूं। मुझे आपत्ति देश में सम्मानित चौकीदारी करने वाले चौकीदारों का नाम सियासत में अपने फायदे के लिए प्रचार तंत्र के रूप में खीचने पर है? अभी देखो चौकीदार के बाद किसका नंबर लगता है! काश हमारे नेता देश को आगे ले जाने की कोई सार्थक बात करते । देश की जनता को कोई अच्छा भी विज़न देते। तब लोकतंत्र में हमारी बात वजन होती। जमीनी होती तो अच्छा लगता ।फिलहाल तो सम्मानित चौकीदार शब्द के नाम पर देश में सस्ता राजनीतिक प्रचार जारी है। जनता देख रही है। चुनाव खत्म हो जाएगा।असली चौकीदारों को राहत हो जाएगी ।क्योंकि तब चुनावी चौकीदार हो जाएंगे असरदार-सत्ता-सरकार?