

Devvrat Sharma
तालिबान के हवाले अफगानिस्तान को छोड़ेगा अमेरिका, भारत की सुरक्षा चिंताएं बढ़ी! कतर समझौते के बाद अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी होगी!
बीते शनिवार को कतर में अमेरिका और अफगानिस्तान के बड़े भूभाग पर काबिज सशस्त्र कट्टरपंथी संगठन तालिबान के बीच एक बड़ा समझौता हो गया है,
जिसके बाद अमेरिका और नाटो की सेनाएं अगले 14 महीनों में अफगानिस्तान से वापस चली जाएंगी lपहली किस्त में लगभग 50% सेनाएं वापस जाएंगी और धीरे-धीरे संपूर्ण अमेरिकी नाटो सेनाएं अफगानिस्तान से वापस जाएंगीl वही लगभग 35 देशों की मौजूदगी में हुए समझौते में अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठन के तौर पर कुख्यात रहे तालिबान के नेताओं ने वादा किया है कि वह अफगानिस्तान में शांति व्यवस्था की बहाली में सहयोग करेंगे और हिंसक गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेंगे।

18 सालों से अलकायदा और तालिबान से लड़ रहा था अमेरिका..
गौरतलब है कि 18 साल पहले 2001 में तालिबान समर्थित अल कायदा ने अमेरिका में जोरदार हमला किया था और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को जहाजों की टक्कर से उड़ा दिया था उस घटना में बड़ी संख्या में अमेरिकियों की मौत हुई थी और उसके बाद अमेरिका ने इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ बड़ा अभियान छेड़ दिया था। किसने 18 सालों से अमेरिका और उसके सहयोगी संगठन नाटो के हजारों सैनिक अफगानिस्तान में अलकायदा और तालिबान के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे थे और अफगानिस्तान में अमेरिका ने अलकायदा और तालिबान के विरोधियों के विरोधियों को एकजुट करके उनकी सरकार भी बनवाई लेकिन अभी भी अफगानिस्तान के बड़े हिस्से पर अलकायदा समर्थित तालिबान लड़ाकों का कब्जा है।

लंबी लड़ाई के बाद भी पूरे अफगानिस्तान को आतंकियों के कब्जे से खाली कराने में अमेरिका को विशेष सफलता नहीं मिल पाई हालांकि अमेरिका के अभियान की वजह से अधिकांश अफगानिस्तान आतंक मुक्त हो चुका है और वहां अल कायदा और तालिबान के नेटवर्क को भारी नुकसान हुआ है यही वजह है कि अलकायदा के नेता पिछले कई महीनों से अमेरिका के साथ समझौता करने की कोशिश में थे।

आतंकी संगठन से समझौता करके अमेरिका की छवि हुई खराब…
गौरतलब है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जब चुनाव जीता था तो उन्होंने वादा किया था कि युद्ध ग्रस्त क्षेत्रों से अमेरिकी फौजों को वापस बुलाएंगे जिससे अमेरिका की अर्थव्यवस्था को फायदा मिलेगा वही फौजियों के मौत का आंकड़ा भी कम होगाl अफगानिस्तान में तालिबान के आतंकी नेटवर्क के खिलाफ संघर्ष में अमेरिका ने अपने हजारों फौजियों को गवाया है। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के इस कदम की अमेरिका समेत विश्व के बड़े हिस्से में आलोचना हो रही है क्योंकि एक आतंकी संगठन के साथ समझौता करके अमेरिका ने पूरी दुनिया में अपनी छवि पर बट्टा लगाया है जबकि पूर्व में अमेरिका लगातार इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ अभियान का नेतृत्व करने की बातें कह रहा था। अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री ने भी इस कदम की आलोचना की है और उन्होंने यह कहा है कि इससे दुनिया में आतंकी संगठनों का मनोबल भी बढ़ सकता है।

गौरतलब है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा भी तालिबान से समझौते के खिलाफ थे और आतंकवाद को जड़ से समाप्त करने के पक्षधर थे।
भारत समेत दक्षिण एशिया की चिंताएं बढ़ी..
तालिबान को अलकायदा समेत दर्जनों आतंकी संगठनों का समर्थन हासिल है और वह एक बड़ा ताकतवर संगठन है जिसने लंबे समय तक अफगानिस्तान पर शासन किया है। अमेरिकी और नाटो फौजों की वापसी के बाद अफगानिस्तान में तालिबान फिर बहुत तेजी से मजबूत होगा और यह भी कहा जा सकता है कि जल्द ही पूरे अफगानिस्तान पर एक बार फिर तालिबान आतंकियों का कब्जा होगाl तालिबान की नीति हमेशा आतंकवाद के पक्ष में रही है और उसने हमेशा पाकिस्तान की आतंकी नीति का समर्थन किया है यह भी कहा जाता है कि तालिबान का रिमोट पाकिस्तान की आईएसआई के हाथों में है क्योंकि तालिबान को हथियारों की सप्लाई पाकिस्तान के जरिए ही होती है और कश्मीर में भी आतंकवाद को आगे बढ़ाने में तालिबान पाकिस्तान की आईएसआई के साथ काम कर रहा है और उसके सैकड़ों आतंकी पहले भी कश्मीर में सक्रिय रहे हैं।

इतना ही नहीं अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार भी इस समझौते से परेशान है और तालिबान के प्रति नरमी बरते जाने को लेकर अफगानिस्तान के तमाम नेता सशंकित हैं उन्हें यह लगता है कि एक बार फिर तालिबान अमेरिकी फौजों के वापस जाते ही पूरे अफगानिस्तान को अपने कब्जे में ले लेगा और पूरे दक्षिण एशिया में आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा मिलेग।
तालिबान के प्रति अमेरिका की नरमी और बदले हुए रुख का सबसे ज्यादा नुकसान भारत को होगा और निश्चित तौर पर भारत की सरकार और भारत की सुरक्षा बलों को अपनी सीमाओं पर पहले से ज्यादा चौकसी बरतनी होगी और आतंकवाद के खिलाफ अपने संघर्ष में और ज्यादा होशियारी दिखानी होगी।
अमेरिका ने अपने हितों को साधने के लिए एक बार फिर भारत ही नहीं समूचे दक्षिण एशिया के हितों को दांव पर लगा दिया है।
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