द इंडियन ओपिनियन
बाराबंकी
बाराबंकी ज़िला, उत्तर प्रदेश के पुराने और क्षेत्रफल की दृष्टि से बड़े ज़िलों में शामिल है। यहाँ की जनसंख्या भी लगभग 45 लाख के करीब है। बावजूद इसके, यह जनपद लंबे समय से सरकारी उपेक्षा का शिकार दिखाई पड़ता है। तमाम सरकारी दावों के बावजूद, यहाँ की बड़ी जनसंख्या अभी भी स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए राजधानी लखनऊ पर आश्रित होने के लिए विवश है।

उच्च शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए उचित सरकारी संस्थान न होने की वजह से, यहाँ के विद्यार्थी अपने जीवन के बहुमूल्य समय में से हज़ारों घंटे सिर्फ लखनऊ आने-जाने की यात्रा में खर्च कर देते हैं। इसी तरह, बेहतर इलाज के लिए लोगों को लखनऊ के अस्पतालों में धक्के खाने पड़ते हैं।
इतना ही नहीं, रोज़गार के पर्याप्त साधन न होने की वजह से बड़ी संख्या में लोग रोज़गार के लिए भी लखनऊ जाने को विवश हैं। दिल्ली के चारों ओर जिस प्रकार से नेशनल कैपिटल रीजन (NCR) बनाया गया, इसी प्रकार लखनऊ के चारों ओर स्टेट कैपिटल रीजन (SCR) बनाए जाने की चर्चा लगभग 15-20 वर्षों से सरकार में चल रही है। अपने दूसरे कार्यकाल में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने स्टेट कैपिटल रीजन को लेकर कुछ गंभीरता दिखाई, लेकिन धरातल पर अभी इस योजना का नामोनिशान दिख नहीं रहा।

बाराबंकी को पिछड़ेपन से निजात कब मिलेगी, इस बारे में भी कुछ नहीं कहा जा सकता। यहाँ की जनता ने हर पार्टी को सत्ता में आने का मौका दिया। यहाँ कांग्रेस, बसपा, सपा, भाजपा – हर दल के नेताओं ने लोकसभा और विधानसभा का चुनाव भी जीता, लेकिन बाराबंकी की दशा सुधारने की बजाय ज़्यादातर बड़े नेताओं ने लखनऊ में अपने बंगले बनवा लिए। बाराबंकी में उनकी राजनीतिक फसल उगाई जाती है और मौका पड़ने पर काट ली जाती है।

यहाँ का ज़िला अस्पताल आम जनता के लिए सिर्फ रेफ़रल सेंटर बनकर रह गया है। डॉक्टर गंभीर मरीजों का इलाज करना ही नहीं चाहते, मामूली समस्याओं में उन्हें रेफर होने के लिए कह दिया जाता है और यदि इलाज होता भी है, तो अव्यवस्था से मरीज बेहाल रहते हैं। ज़िला मुख्यालय पर एकमात्र सरकारी डिग्री कॉलेज जवाहरलाल नेहरू स्मारक डिग्री कॉलेज है, जिसे जनेस्मा (JNESMA) भी कहा जाता है। इसका भी बुरा हाल है। पर्याप्त कक्षाएँ नहीं हैं, मुख्य भवन घोटालेबाजों ने कुछ वर्ष पहले मिलीभगत करके तुड़वा दिया। आज भी आधुनिक प्रोफेशनल कोर्सेज इस एकमात्र डिग्री कॉलेज में नहीं हैं। पैसे वाले सक्षम परिवारों के बच्चे लखनऊ पढ़ने जाते हैं, गरीब निर्धन साधनहीन बच्चे अपने सपनों का गला दबा देते हैं।

इस मामले में नेताओं और अफसरों का जो भी दोष माना जाए, वह अपनी जगह है, लेकिन जनता भी इसके लिए कम ज़िम्मेदार नहीं है, जो अपने नेताओं से/जनप्रतिनिधियों से अपने विकास, अपने बच्चों की खुशहाली के सही सवाल नहीं करती, जातिवाद और मज़हबी उन्माद में वोट करके अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेती है। जब तक देश की जनता नेताओं और बड़े अधिकारियों से अपने विकास के बुनियादी सवाल नहीं करेगी, तब तक उन्हें चिराग तले अंधेरा ही मिलेगा। यही हाल बाराबंकी का है, बगल में लखनऊ है फिर भी यहाँ पिछड़ेपन का अंधेरा कायम है।