The Indian Opinion
दीपक कुमार
पिछले कुछ दिनों में राजधानी लखनऊ का सबसे निकटवर्ती जनपद बाराबंकी बच्चों के साथ होने वाली दुखद और शर्मनाक घटनाओं को लेकर सुर्खियों में है।
कल बाराबंकी में अवैध रूप से संचालित एक स्कूल की जर्जर बिल्डिंग का एक हिस्सा गिर गया, जिससे करीब दो दर्जन बच्चे गंभीर रूप से घायल हो गए। इसके पहले भी स्कूलों में और स्कूल वाहनों में बच्चों की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ के मामले सामने आए हैं। लोग अभी उस घटना को नहीं भूले हैं जब एक स्कूल वैन में एक मासूम बच्ची के साथ बलात्कार की घटना ने उन्हें हिला कर रख दिया था। इतना ही नहीं, एक अन्य बच्ची भी घर से स्कूल जाने के लिए निकली थी और यौन शोषण का शिकार होकर वापस घर पहुंची।
इन घटनाओं में कुछ भिन्नता जरूर है लेकिन जिस कोमल आयु में बच्चों को जीवन और शरीर के सही मायने भी नहीं पता हैं उस प्रारंभिक अवस्था में हमारी लापरवाही से हम उनके तन और मन पर ऐसे घाव दे रहे हैं जो पूरी सभ्यता और व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह के समान है।
लेकिन आपका अंतर मन भी यह सवाल कर रहा होगा कि आखिर क्यों हमारे मासूम बच्चों की समग्र सुरक्षा और समुचित विकास के लिए हमारा समाज हमारी सरकार स्वतंत्र होने के इतने दशकों बाद भी ना तो कोई ठोस नीति बना पाई है और ना ही धरातल पर कुछ ठोस क्रियान्वित कर पाई है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसी घटनाएं देश के तमाम दूसरे हिस्सों में भी हुई हैं कई बार तो मासूम बच्चों की दुष्कर्म के बाद अथवा विरोध करने पर हत्याएं भी कर दी गई हैं ।
घरों में तो बच्चे माता-पिता की निगरानी में रहते हैं, उनके साथ अनहोनी की संभावना कम होती है, लेकिन जब बच्चे माता-पिता की निगाहों से दूर किसी अन्य के संरक्षण में होते हैं, तो उनके शिकार बनने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। नियमित रूप से लगभग हर बच्चे को अपने शैक्षणिक विकास के लिए विद्यालय जाना होता है। छोटे बच्चों और बच्चियों को भी माता-पिता स्कूल वाहन अथवा किसी नियमित टैक्सी से स्कूल भेजते हैं। सरकारी नियमों के मुताबिक स्कूल वाहनों में बच्चों की सुरक्षा और सुविधा की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए। यदि महिला बच्चे हैं, तो महिला सहायक भी होनी चाहिए, लेकिन शायद ही किसी स्कूल वाहन में यह व्यवस्था लागू हो पाई है।
इसके अलावा, स्कूल बिल्डिंग राष्ट्रीय भवन कोड के अनुरूप भूकंपरोधी होनी चाहिए। उनमें हवा और प्रकाश की भी समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। आरामदायक स्थिति में ही बच्चों को स्कूलों में रोका जाना चाहिए, परंतु ज्यादातर स्कूल इस मानक का पालन शायद ही करते हों। अधिकांश स्कूलों में गर्मी और सीलन के माहौल में भी कक्षा की क्षमता से दोगुने बच्चे बैठाए जा रहे हैं। कई बार बच्चों को घुटन और बेहोशी का सामना भी करना पड़ता है। इसके अलावा, ज्यादातर स्कूलों में साफ-सुथरा और सुरक्षित शौचालय भी मौजूद नहीं है।
शायद ही पिछले कुछ वर्षों में किसी सरकार ने ज्यादातर निजी और सरकारी स्कूलों का सूक्ष्म निरीक्षण करवाया हो बड़े अधिकारियों को भी बच्चों की ओर ध्यान देने की शायद फुर्सत कम मिलती हो क्योंकि शासन के दबाव में उनकी प्राथमिकता अन्य कार्यों की रहती है बच्चे शायद उन प्राथमिकताओं का हिस्सा जल्दी नहीं बन पाए ।
बाराबंकी के जहांगीराबाद इलाके की घटना और उससे पहले प्रदेश व देश के कई इलाकों में हुई घटनाओं ने हर संवेदनशील मन को झकझोर कर रख दिया है। मासूम बच्चों की आंखें मानो माता-पिता और सरकार के अधिकारियों से एक सवाल करती हैं कि “आखिर आप सबके संरक्षक होते हुए हमारे साथ ऐसा क्यों हो रहा है?” कहीं दुष्कर्म के बाद घायल होती बच्ची दिखाई देती है, तो कहीं स्कूल भवन के मलबे के नीचे दबे, फंसे, लहूलुहान बच्चे। एंबुलेंस या स्ट्रेचर पर या फिर बिलखते परिजनों की गोद में बच्चे—ये सारे दृश्य सभ्य आधुनिक समाज की विफलता ही नहीं, बल्कि बर्बादी की कहानी कह रहे हैं और हमारी संवेदनहीनता की भी।
हम अपने ही पूर्व काल यानी बालपन के प्रति न्याय करने में असमर्थ हैं। बाल या किशोरावस्था में जो अव्यवस्था और असुरक्षा हमने सही, क्या वही हमारे बच्चे भी सहेंगे? उनके लिए हालात और बेहतर होंगे या फिर और बिगड़ेंगे? यह सवाल हर मासूम बच्चा अपने शब्दों से भले ही न कह पाए, लेकिन उसकी आंखें हम सब से पूछ रही हैं। बाराबंकी की इन घटनाओं के बाद शायद बाराबंकी के बच्चों के मन में भी यही सवाल उनके माता-पिता के प्रति है, और साथ ही जनपद और प्रदेश के संचालन करने वाले अधिकारियों और नेताओं से भी।
द इंडियन ओपिनियन को उम्मीद है की प्रदेश के मुखिया योगी आदित्यनाथ व अन्य जनप्रतिनिधि इन विषयों पर गंभीर होंगे और इसके साथ ही बाराबंकी के जिला अधिकारी सत्येंद्र कुमार भी बच्चों और उनके परिजनों की चिंताओं को प्राथमिकता पर लेंगे।