निर्बलों के दीनदयाल: बचपन में हुए अनाथ, फिर भी भारत को दिए अंत्योदय, स्वदेशी और एकात्मक मानववाद जैसे समाजवादी सिद्धांत, लेकिन कैसे हुए बलिदान?

द इंडियन ओपिनियन
लखनऊ
दीपक कुमार

भारत की महान धरती ने ऐसे कई कर्मठ महापुरुषों को जन्म दिया है जिन्होंने न सिर्फ भारत, बल्कि पूरी दुनिया की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का मार्गदर्शन किया। ऐसे ही एक महान आत्मा थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय, जिनका जन्म उत्तर प्रदेश के मथुरा में 25 सितंबर 1916 को हुआ था।

जब वह 3 वर्ष के थे, तब उनके पिता भगवती प्रसाद का निधन हो गया, और 7 वर्ष की आयु में उनकी माता रामप्यारी का भी देहांत हो गया। मासूम उम्र में अनाथ होकर जीवन की भीषण कठिनाइयों का सामना करते हुए भी ऊंचे मनोबल और दृढ़ संकल्प के बल पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भारतीय राजनीति में बेहद कम वक्त में एक बड़ी जगह बनाई और दलितों-वंचितों के ‘दीनदयाल’ कहलाए।

देश सेवा के लिए युवावस्था में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ने के बाद पंडित जी ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की दिशा में बड़े कार्य किए। देश के तमाम हिस्सों में भ्रमण करते हुए लोगों को राष्ट्रीय हितों को सबसे ऊपर रखने का महत्व बताया और तत्कालीन भारत के मुख्य विपक्षी दल जनसंघ के अध्यक्ष भी बने।

समाज में सबसे अंतिम पायदान पर खड़े गरीबों, पिछड़ों और दलितों के लिए उन्होंने “अंत्योदय” का सिद्धांत दिया। दीनदयाल जी कहते थे कि सरकारों को समाज के अंतिम पायदान पर खड़े यानी सबसे कमजोर लोगों को ध्यान में रखकर अपनी नीतियां बनानी चाहिए। समाज के सबसे कमजोर लोगों के सशक्तिकरण से ही देश विकास के मार्ग पर बढ़ पाएगा।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय (फाइल फोटो)

उन्होंने सबसे पहले आत्मनिर्भर भारत यानी स्वदेशी अर्थव्यवस्था का सिद्धांत दिया और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आधार पर देश के सभी नागरिकों में एकता का संचार करने के लिए सह-अस्तित्व के सिद्धांत को ‘एकात्मक मानववाद’ का सूत्र दिया।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय मानते थे कि सभी मनुष्य एक ही परमात्मा की संतान हैं, इसलिए सब एक रिश्ते से बंधे हैं। सभी को एक-दूसरे के अस्तित्व का सम्मान करना चाहिए, और उन्होंने ‘एकात्म मानववाद’ की एक ऐसी व्याख्या प्रस्तुत की जो वसुधैव कुटुंबकम पर आधारित थी।

वह कहते थे, “भारत को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के धरातल पर आगे बढ़ते हुए प्राचीन सभ्यता और आधुनिक आवश्यकताओं में तालमेल बिठाकर स्वावलंबी बनते हुए, विदेशी निर्भरता के बिना समाज के अंतिम और कमजोर लोगों को प्राथमिकता देते हुए अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करना चाहिए। इसी तरह एक शक्तिशाली और स्वावलंबी राष्ट्र के रूप में भारत को विश्व का मार्गदर्शन करना चाहिए।”

हिंदू जीवनशैली को वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार मानते थे। उनके अनुसार, “समस्त भारत में जन्मे लोग हिंदू संस्कृति के ही वैचारिक धरातल से उभरे हैं। सनातन संस्कृति ने ही भारत में अलग-अलग पंथों और विचारधाराओं को पनपने और बढ़ने का अवसर प्रदान किया, क्योंकि यह संस्कृति मूल रूप से लोकतांत्रिक और सह-अस्तित्व पर आधारित है। इसीलिए हिंदू जीवन-दर्शन ही भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है, और इसी के आधार पर सभी वर्गों और विचारधाराओं का कल्याण और सुरक्षा संभव है। यही एकात्म मानववाद का आधार है।”

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अपने जीवन में कई पुस्तकें भी लिखीं। वह भारतीय समाज को जातिवाद और विभाजनकारी नीतियों से मुक्त करके एक सूत्र में पिरोना चाहते थे। भारतीय नागरिकों को एक-दूसरे का सम्मान करने के लिए प्रेरित करते थे और उन्हें संगठित करना चाहते थे। उन्होंने सैकड़ों उपयोगी लेख भी लिखे। वह बेहद सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे, और एक महत्वपूर्ण राजनीतिक दल के अध्यक्ष होने के बावजूद उन्होंने कभी प्रोटोकॉल या सुरक्षा व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। वह प्रायः अकेले या फिर कार्यकर्ताओं के साथ ही रहते थे।

लेकिन देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि ऐसे महान विचारक और दार्शनिक व्यक्तित्व का संदिग्ध परिस्थितियों में अंत हो गया। बहुत से लोग उनकी मृत्यु को हत्या मानते हैं, क्योंकि 11 फरवरी 1968 को जब वह ट्रेन में सफर कर रहे थे, संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मौत हो गई और उनका शव मुगलसराय रेलवे स्टेशन की पटरी पर पाया गया। जबकि उस समय वह ट्रेन के फर्स्ट क्लास डिब्बे में सफर कर रहे थे। कुछ लोगों को संदेह है कि राजनीतिक विरोधियों और कट्टरपंथियों ने उनकी हत्या करवाई, हालांकि सरकार ने इस विषय पर कभी कोई विस्तृत और निष्पक्ष जांच नहीं करवाई।

जिस प्रकार सुभाष चंद्र बोस, डॉक्टर लाल बहादुर शास्त्री और डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे महापुरुषों के जीवन का संदिग्ध अंत हुआ, उसी प्रकार देश के इस महान सपूत ने भी अपना बलिदान दिया।

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