कोरोना इफेक्ट:”कपड़ों की बातचीत” रुमाल को मिल रहा वीआईपी ट्रीटमेंट! द इंडियन ओपिनियन के लिए, डॉ मालविका हरिओम का हास्य व्यंग!

प्रस्तुति – उमेश यादव

कोरोना महामारी के चलते लॉक डाउन में लोग घरों में अपना समय बिता रहे है।  ऐसे में लोग में डिप्रेशन दूर करने के लिये टीवी, मोबाइल,इंटरनेट सहित घरेलू कार्यो में मन लगाने का प्रयास कर रहे है।
तमाम गायक,कवि,कवयित्री व लेखक अपने गीतों,कविताओं व हास्य व्यंग्य लेख को फेसबुक और व्हाट्सएप पर पोस्ट करके लोगों के मानसिक तनाव को दूर करने के साथ कोरोना के प्रति जागरूक करने का प्रयास कर रहे है।

प्रसिद्ध कवयित्री व लेखिका डॉ मालविका हरिओम ने,”कपड़े भी करते है बातचीत”, पर आधारित इस व्यंग को बहुत ही रोचक व भावनात्मक अंदाज में प्रस्तुत किया है।
 
ध्यान से पढ़िए और आनंद लीजिए l
    कपड़े बोले,मैडम, कब तक धूप का बहाना करोगी! धूप तो बढ़िया निकल रही है। अब तो हमें धुल दो। मैले पड़े-पड़े स्मेल आने लगी है हमसे।
मैंने कहा,अरे वाह! तुम लोग अंग्रेज़ी भी बोल लेते हो! वे बोले, और क्या, हमें देहाती समझा है क्या ! हमारे टैग तो देखो! मैं पीटर, सीधे यूके से। यूके मतलब इंग्लैंड। अब उत्तराखंड मत समझ लेना। जिस तरह हमारा हाल किया हुआ है आपने, उससे तो लगता है कि पढ़ी-लिखी तो बिल्कुल नहीं हो आप। पढ़ी-लिखी होतीं तो कुछ तो ज़ात-पात और ऊँच-नीच समझतीं। हम सबको एक-साथ ही झोंक रखा है इस ड्रम में।
ख़ैर, मैं हूँ पीटर इंग्लैंड, ये मेरा दोस्त लुइस और ये वैन ह्यूसन, मैं वहीं चिल्ला पड़ी, क्या बोला, वुहान ह्यूसन! इस चीनी को तो पहले निकालती हूँ। ये यहाँ कैसे आ गया! इसने तो पूरी दुनिया हिला के रख दी है। ओफ्फो मैडम! पीटर ने सिर पकड़ लिया। बोला कौन वुहान? ये कोई वुहान नहीं है, ये तो मेरा दोस्त वैन है। लेकिन रिक्वेस्ट आपसे इतनी थी कि ये जो खादी का कुर्ता चिपका है हमारे साथ, इसे कहीं अलग डाल देतीं। कितना रंग छोड़ रहा है। मेरा गोरा रंग बिगाड़ के रख दिया इसने। चकत्ते से पड़ गए हैं लाल-लाल। मैंने कहा ध्यान से देखो, यह खादी नहीं, स्वैग इंडिया का कुर्ता है। बहुत महँगा है, तुमसे भी ज़्यादा क़ीमत का। पीटर तुरंत झेंपते हुए बोला, अब ऐसे-ऐसे नाम और क़ीमत रखकर सब समझते हैं कि वे हमारे स्टैण्डर्ड के हो गए। स्टैण्डर्ड तो आप समझती होंगी ना! कितना रंग छोड़ रहा है। आप तो देख ही रही हैं। अच्छा हुआ आपने बता दिया वरना इसे देखकर तो हमें इसकी क़ीमत का अंदाज़ा बिल्कुल भी ना लगता।इसे हमसे दूर करिये प्लीज़। और हमारा एक साथी,पोलो ग़लती से नीचे चला गया है, चादर-तौलिए के बीच। हम सब साथ-साथ ही रहते हैं। उसे अगर आप थोड़ा ऊपर कर देतीं तो अच्छा रहता।

इतने में नीचे से एक दमदार आवाज़ आयी। बहनजी इन विदेशियों की बेकार बातों में न पड़ो। हमें निकारो। कबसे सब हमारे ऊपर चढ़े बैठे हैं। नीचे से चद्दर-तौलिए बोले। मैं बॉम्बे से हूँ, नाम तो सुना ही होगा। ये मेरी बुआ हैं श्रीमती चादर रानी। आप अपने ही लोगन को नीचे कर इन सबका काहे ऊपर बिठाई हो बहनजी। हमसे तो साँस भी नहीं ली जा रही अब। पहिरे इनका भार सहो फिर इनका नखरा। जाने कबसे बुराई करन मा लागे हैं। ई खादी, ऊ लोकल, ई स्टैण्डर्ड, ऊ बिना स्टैण्डर्ड। बड़े आए पीटरवा कहीं के। इनका पीटब हम।

अब कपरा तो कपरा होत है। जौनो इतना नाजुक बनके इस्टाइल मार रहे हैं, क्या हमारा काम कर लेंगे ये। किसी का मुँह पोंछत भर से ही पुचुक जइहें ये। तौलिए का काम तो तौलिया ही करेगा ना। तब इनका स्टैण्डर्ड किस काम का। कैपिटलिस्ट कहीं के! मेरी तो आँखें फटी की फटी रह गईं। मैंने हैरानी से तौलिए की तरफ़ देखा तो वो बोला, हमें ऐसे ना घूरो। हम इन लोगन से ज़्यादा पढ़ा-लिखा हूँ बहन जी।

प्लीज़ थोड़ा इधर देखिए ना दीदी। एक मासूम-सी आवाज़ ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैंने पूछा कौन? तो आवाज़ आयी, अरे मैं हूँ दीदी, आपकी चुन्नी। ‘दीदी’ शब्द सुनकर सारा ममत्व बाहर निकल आया मेरा। मैंने बड़े प्यार से पूछा, क्या हुआ चुन्नी? चुन्नी बोली, दीदी, सबसे पहले तो ये जो हमारे साथ में हैं, इनको बाहर करिये आप। बहुत गरम मिजाज हैं। क़सम से, जान ले रक्खी है मेरी। सिकुड़-सिकुड़ के उँगली बराबर जगह में पड़ी हूँ मैं। सारी जगह इन्होंने घेर रक्खी है फिर भी चैन नहीं है। हम लोग सबसे नीचे हैं। इन लोगों की शिकायत ख़त्म होती तो हम कुछ कहते। ये चद्दर-तौलिए सब झूठ बोल रहे थे आपसे। इन सबका भार तो हमई उठाए हैं कबसे। लेकिन दीदी ई जो आप हमरी सास हमरे साथ इहाँ धर दीन हो, ई अच्छा नाहीं किया आपने। दुख में इंसान अपनी ही भाषा पर आ जाता है। संभ्रांत-सी लगने वाली चुन्नी का लहजा अचानक से बदल गया था। अब शिकायत का स्वर मुखर था। मैंने पूछा कौन सास? तो बोली यही ‘शॉल देवी’। एक तो वइसन ही इतना बोझ संभारे हन हम सबका ऊपर से ई अपनी गर्मी अलग झारति हैं। दिन-भर बोलत हैं। इनका ज्ञान सुन-सुन के पक जाती हूँ मैं। चुन्नी आगे बोली, गर्मी मा लोग हमका ओढ़त हैं आप पता नहीं कैसे इनका ओढ़ लेवत हो। कहती हैं मैं दीदी की ख़ास हूँ। तब जाकर मुझे समझ आया कि चुन्नी की सास कौन?

माना कि बिटिया के स्कूल बंद हैं तो क्या हमारी जान ही ले लोगी आंटी। सबसे पहले हम ही आए थे इस ड्रम में। चुन्नी भी झूठ बोल रही है। हम तो उसके भी नीचे फँसे हैं। जब से आए हैं तबसे मार कपड़े पे कपड़ा। धुलो ना धुलो हमें बाहर निकालो अब। अब और बोझ ना सह पाएँगे। यूनिफार्म नाम है हमारा। छोटा बच्चा जान के हम पर इतना अत्याचार!! स्कूल खुलने पर सबसे पहले हमीं को ढूँढोगी। तब छुप जाएँगे हम कहीं। इसे धमकी ही समझ लो अब। एक ही साँस में इन बच्चों ने अपना सारा दर्द और घुड़की मुझ तक पहुँचा दी।

*इन रूमालों को बड़ा वीआईपी ट्रीटमेंट मिल रहा है आजकल। अलग बाल्टी है इनके लिए। हाथ के हाथ धुल दिए जाते हैं। कहाँ तो इनकी कोई हैसियत नहीं थी। साहब की पैंट से निकाले बिना अंदर ही अंदर धुल भी जाते थे और किसी को पता तक नहीं चलता था। रस्सी पर से मार उड़े जावें पड़ोसी के घर। किसी गिनती में नहीं थे ये। और आज देखो, कितनी खातिरदारी हो रही इनकी। ड्रम के किनारे पड़े पायदान ने बड़ी कुटिलता से कहा। “तू चुप कर,” मुझे भी क्रोध आ गया। क्यों आग में घी डालने का काम कर रहा है। तभी ड्रम में पड़े कपड़े बोले कि बात तो सही कर रहे हैं पायदान भैया। इन रूमालों के लिए इतनी बढ़िया व्यवस्था और हमारा ये हाल। मैंने बस इतना ही कहा कि तुम लोग नहीं समझोगे कि देश कौन-सी मुसीबत से जूझ रहा है। रुमाल की क़ीमत मतलब जान की क़ीमत।*


किसी को कुछ समझ नहीं आया। इतने में एक दर्द भरी आवाज़ सुनाई दी कि हटाओ ये सब देश-दुनिया। आप तो बस हमारी हालत पे तरस खाओ बहनजी।
हम बोल रहे हैं, ड्रम के ऊपर से। इन सबने तो अपनी बात कह दी। ये सब तो सेट हैं ड्रम के अंदर। हमें देखो! हम तो न अंदर के, न बाहर के। हम कहाँ और आपके ड्रम का ढक्कन कहाँ। भरते-भरते इतना भर दिया आपने कि क्या बताएँ। ये तो हमीं जानते हैं कि किस तरह बैलेंस बनाकर टँगे हैं हम यहाँ। कुछ लुढ़क कर नीचे गिरने को तैयार रहते हैं तो हम एक-दूजे को संभाल लेते हैं। क़सम से, आपके घर के तो चूहों से भी डर लगता है। जो नीचे गिरा, वो तो गया काम से। आख़िर कब तक इस तरह हवा में टँगे रहेंगे हम। अब तो हमें धुल ही दो बहनजी।
उधर रस्सी बड़ी देर से ये सब सुन रही थी। बोली बिटिया, इतने दिन हो गए, काया जानो सूख रही। झुर्रियाँ-सी पड़ गयी हैं। नमी का तो कौनो नाम नहीं। इतने दिनों से एक भी कपड़ा नहीं सुखाया तुमने। इससे पहले कि तुम कपड़ा डारो और हम चिटक के गिर परी, तनी कपड़ा धुल लेयो बिटिया। रस्सी के इस विनम्र निवेदन ने सचमुच द्रवित कर दिया मुझे। फिर लॉकडाउन के ख़याल से याद आया कि इसकी बात मान ही लेती हूँ। कहीं ये सचमुच चिटक गईं तो फिर कपड़े कहाँ सूखेंगे?
आज तो इन सबने मिलकर मुझे इमोशनल ही कर दिया क़सम से। लगा कि आज कपड़े धुल ही दें। बर्तन घिस-घिस कर घायल हुए हाथों को इस टास्क के लिए मेंटली तैयार किया और फिर जैसे ही कपड़े धुलने बैठी कि बच्चे बोले, अरे वाह! आज तो मम्मी कपड़े धुल रही हैं। मम्मी, प्लीज़ हमारे कमरे के पर्दे भी धुल दो ना। वो भी तो अब कई दिन के मैले हो गए हैं।

इस व्यंग को लिखने वाली लेखिका डॉ मालविका हरिओम सबसे यही सबसे अपील कर रही है कि कोरोना के प्रति सचेत रहिये, घरों में रहिये, स्वस्थ व सुरक्षित रहिये।

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