मां बहनों बेटियों से दुष्कर्म सरकार ही नहीं आवाम को भी हो शर्म! आंकड़ों में उलझती संवेदनाएँ

दिन प्रतिदिन बालात्कार की बढ़ती घटनाओं ने हमारे एक सभ्य,मानवीय और भय मुक्त समाज होने के दावों को छिन्न भिन्न कर दिया है ।माओं, बहनों , बेटियों और बहुओं के साथ होने वाली बालात्कार की घटनाएँ सरकारी आंकड़ों के माया जाल में उलझ कर रह गयी हैं।

जैसे ही कोई बलात्कार की घटना होती है तुरन्त आँकड़ें बचाव में सामने आ जाते हैं । फलां राज्य में फलां सरकार में इससे ज्यादा घटनाएँ हो रही हैं तो यहाँ भी कुछ घटनायें होना तो लाज़मी और जायज़ है ।

कोई बलात्कार की घटना होते ही सबसे पहले ये देखा जाता है कि पीड़िता किस समुदाय की है और फिर उस समुदाय के किस वर्ग की ? फिर एक आंकलन कि इस घटना को राजनैतिक लाभ के लिए भुनाया जा सकता है अथवा नहीं? कैसे कोई समाज , कोई प्रशासन या राजनैतिक दल इतना संवेदनहीन हो सकता है? हाथरस और बलरामपुर में हुई बलात्कार की घटनाओं की मीडिया कवरेज और राजनैतिक दलों की प्रतिक्रिया में फर्क क्यों ?

हम सब पीड़िता की उस लाचारी को क्योँ नहीं समझ पाते जब हवस के अंधे किसी नरपिशाच ने उसकी अस्मिता को तार तार कर अपनी प्यास बुझाई होगी । जब पीड़िता ने चिल्लाना चाहा होगा तो किसी ने उसका मुँह दबा दिया होगा और उसकी चीखें और सिसकियां घुट के रह गयी होंगी । क्या हम उस पीड़िता की मानसिक और शारीरिक यातना को महसूस कर पाएंगे कभी ? क्या कभी उन चीखों में हमें अपने किसी की चीख शामिल होने का एहसास होगा? या फिर हमारे लिए भी हर घटना सिर्फ एक आँकड़ा बन के रह जायेगी ?

न तो हम लड़कियों और महिलाओं का घर से बाहर निकलना रोक सकते हैं और न ही उनमें से हर के पीछे सुरक्षा के लिये एक पुलिस वाला तैनात कर सकते हैं। बदलाव लाने के लिए हमें बहुत से सवाल पूछने होंगे। सरकार से , नेताओं से, समाज से खुद अपने आप से । हमें स्वमूल्यांकन करना होगा कि क्या हम अपनी नई पीढ़ी को सही परवरिश और मानवीय संवेदनाओं की सही शिक्षा दे पा रहे हैं ? क्यों एक समुदाय /वर्ग विशेष की महिला के साथ हुआ बलात्कार मीडिया की सुर्खियां बन जाती हैं जबकि किसी और के साथ हुई घटना महज़ एक आँकड़ा?

अगर हमें इन हालातों में सुधार लाना है तो हमें इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने होंगे।हर गली, हर नुक्कड़,हर घर , हर मंच पर इन सवालों पर खुल के चर्चा करनी होगी । हमें सुनिश्चित करना होगा कि मानवीय जान ,उसकी तार तार की गई अस्मिता सिर्फ एक आँकड़ा बन के न रह जाये ।

जब हम सब मिलकर एकसाथ ये सवाल पूछेंगे तो सरकार, प्रशासन, राजनैतिक दलों सभी को जवाब देना पड़ेगा और प्रत्येक घटना की मानवीय संवेदनाओं के साथ जांच करा कर ज़िम्मेदार व्यक्ति को दोषी भी ठहराना पड़ेगा।

याद रखिये समाज में रोज़ हो रही बलात्कार की घटनाओं की वास्तविक संख्या, सरकारी आँकड़ों से कहीं बड़ी है जो लोक लाज और भय के कारण शर्म की चादर के नीचे छिपा दी जाती है।

आलेख- विकास चन्द्र अग्रवाल

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