*मुगलकाल में मुस्लिम विद्वान रसखान, नजीर अकबराबादी और ताज बेगम ने योगेश्वर कृष्ण की भक्ति में जो किया वह बहुत कम लोग कर पाए। जरूर पढ़ें रविंद्र उपाध्याय का लेख..The Indian opinion*


श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के निकट आते ही हमारी कल्पना में भगवान् श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं की मधुर छवियों, ब्रज की गोपिकाओं और उनके बीच प्रेमपूर्ण छेड़छाड़, ग्वाल बालों के साथ गाय चराने, वंशी की मोहक धुन और महारास के साथ-साथ कंस का वध करने वाले, मित्र सुदामा का कष्ट हरने वाले,द्रौपदी की लाज बचाने वाले महाभारत के नायक और गीता के उपदेशक योगेश्वर कृष्ण की ऐसी मनोहर छवियाँ उभरने लगती हैं कि हमारा मन उस लीलाधर के अद्भुत व्यक्तित्व में खो जाता है और हम कृष्णमय हो जाते हैं।


आश्चर्य तो तब होता है जब कृष्ण की मनोहर छवि बहुत से मुसलमानों को भी भक्ति की धारा में बहा ले गई।ऐसे कवियों में रसखान सर्वश्रेष्ठ हैं जिनके सवैयों में कृष्ण भक्ति की गहन तन्मयता है और अद्भुत माधुर्य है।रसखान के सवैये जैसे ‘मानुष हैं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन’, ‘या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहू पुर कौ तजि डारौं’ और ‘काग के भाग कहा कहिये हरि हाथ सौं लै गयो माखन रोटी’ आदि सबकी स्मृति में हैं इसलिये उनके अतिरिक्त एक अन्य प्यारा सवैया उद्धृत कर रहा हूँ।

गोपियाँ कहती हैं कि यह बाँसुरी तो हमारी सौत है,हमारे मनमोहन का पीछा ही नहीं छोड़ती! चलो हम सब यहाँ से भाग चलें, ब्रज में तो अब बाँसुरी ही रहे तो ठीक।
“कान्ह भये बस बाँसुरि के अब कौन सखी हमको चहिहै।
निस द्यौस रही संग साथ लगी, यह सौतिन तापन क्यों सहिहै।
जिन मोहि लियो मनमोहन को, रसखानि सदा हमको दहिहै।
मिलि आओ सखी सब भागि चलें, अब तो ब्रज में बँसुरी रहि है।”

रसखान के बाद औरंगज़ेब के ज़माने की कृष्ण के भक्ति में पगी ‘ताज बेगम’ का नाम बहुत प्रसिद्ध है।कोई कहता है कि वे औरंगज़ेब की भतीजी थीं तो कोई बताता है कि वे अकबर के बेगमों में से एक थीं।आज के जमाने में कोई मुसलमान ‘ताज बेगम’ के जैसा छंद लिखे तो हिन्दुस्तान भर के मौलवी आसमान सिर पर उठा लेंगे।देखिये उनका छंद-
“सुनो दिलजानी मेरे दिल की कहानी
तेरे दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं।
देव पूजा ठानी मैं नेमाज को भुलानी,
तजे कलमा कुरान सारे गुनन गहूँगी मैं।
साँवरे सलोने सरताज़ सिर कुल्ले दिये,
तेरे नेह दाग में निदाघ ह्वै दहूँगी मैं।
नन्द के कुमार कुरबान तेरी सूरत पे
हौं तो मुगलानी हिन्दुआनी ह्वै रहूँगी मैं!”

ताज़ बेगम का एक और पद बहुत सुन्दर है-

“छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला,बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूं देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहै, नाक-मोती सेत जो है कान,
कुण्डल मन मोहै, लाल मुकुट सिर धारा है।
दुष्टजन मारे, सब संत जो उबारे ताज,
चित्त में निहारे प्रन, प्रीति करन वारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावन वारा, कृष्ण साहेब हमारा है।”

रीति क़ालीन कवियों ने कृष्ण और गोपियों को लेकर जो श्रृंगार की धारा बहाई उसमें भक्ति नेपथ्य में चली गई और काव्य को कामुकता से सराबोर कर दिया।कृष्ण और राधा साधारण नायक-नायिका हो गये लेकिन भारत की संस्कृति में रमे हुये आगरे के मशहूर शायर मियाँ नज़ीर अकबराबादी ने कृष्ण जी के बारे में बहुत सी नज़्में लिखीं।उन नज़्मों में कवि की कृष्ण जी के प्रति आस्था, भक्ति और आदर को यदि वे कवि पढ़ पाते तो लज्जित होकर जमीन में गड़ जाते।

नज़ीर अकबराबादी का काल ईस्वी सन् 1735 से सन् 1830 का है,भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्म नज़ीर के पचास साल बाद का है।हिन्दी काव्य का यह रीतिकाल था और उर्दू शायरी में मीर तकी मीर और सौदा का दौर दौरा था।

उस जमाने के शायर फ़ारसी को तरजीह देते थे और उनके प्रतीक व उपमान सभी ईरान और अरब की दुनियाँ से लिये जाते थे लेकिन नज़ीर को भारत की मिट्टी से, यहाँ की नदियों से, यहाँ की आबो हवा से, यहाँ के खेल तमाशों से, यहाँ की छोरियों-छोरों की रंगीनियों से, यहाँ की होली, दीवाली, राखी, जन्माष्टमी से, शंकर जी, दुर्गा जी, गणेश जी, राम जी और सबसे ज्यादा हमारे नटवर नागर कृष्ण कन्हैया जी से प्यार था।इसलिये मियाँ नज़ीर ने जो नज़्में अल्लाह, नबी और इस्लाम के ख़लीफ़ों की तारीफ़ में लिखीं,सूफ़ियाना नज्में लिखीं,हिन्दू मुस्लिम त्यौहारों, मौसमों और ककड़ी से लेकर ख़रबूज़ा तक कोठे वालियों से लेकर लैला-मजनूँ तक शायरी का कमाल दिखाया, उन्हें आज जन्माष्टमी के दिन दरकिनार कर के मैं उनकी कृष्ण जी पर लिखी नज़्मों की ही बात करूँगा।

पहले सूची देख लीजिये, दो तीन नमूने भी दे दूँगा-१. कृष्ण कन्हैया की तारीफ़,२.तू सबका ख़ुदा हे कृष्ण कन्हैया,३.जनम कन्हैया जी,४.बालपन बाँसुरी बजैया का, ५. कालिया दमन,६. कन्हैया जी की रास ७. ब्याह कन्हैया का, ८. रुक्मणी का ब्याह,९.हरि की तारीफ़ ,१०. कृष्ण जी और नरसी मेहता,११.सुदामा चरित,१२.बाँसुरी और १३.श्री कृष्ण जी की तारीफ़ में(क्रमांक १ से अलग नज्म है)।
‘कालिय दमन’ नामक नज्म की शुरुआती पंक्तियाँ देखिये-
“तारीफ़ करूँ मैं अब क्या क्या उस मुरली अधर बजैया की।
नित सेवा कुंज फिरैया की और बन बन गऊ चरैया की।।
गोपाल बिहारी बनवारी दुख हरना मेहर करैया की।
गिरधारी सुन्दर श्याम बरन और हलधर जू के भैया की।
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमति छैया की।
रख ध्यान सुनो, डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की।१।”
‘बाँसुरी’ नज़्म की आख़िरी पंक्तियाँ –
“मोहन की बाँसुरी के मैं क्या क्या कहूँ जतन,
लय उसकी मन की मोहनी धुन उसकी चित हरन।
उस बाँसुरी का आन के जिस जा हुआ बजन।
क्या जल पवन ‘नज़ीर’ पखेरू व क्या हिरन।।
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बाँसुरी।।९।”

नज़ीर मियाँ की ‘कन्हैया का बालपन’ वाली नज्म लम्बी है लेकिन बहुत मोहक है।३३ छंदों में सभी बाल लीलायें तो आ नहीं सकतीं लेकिन देखिये नज़ीर कितने उन्मुक्त हृदय से कृष्ण जी की जय बोलते हैं।दो छंदों की बानगी देखिये।कृष्ण जी यशोदा जी से गोपियों की शिकायत करते हैं:-
“माता कभी यह मेरी छुंगलिया छुपाती हैं।
जाता हूँ राह में तो मुझे छेड़ जाती हैं।
आपही मुझे रुलाती हैं आपी मनाती हैं।
मारो इन्हें यह मुझको बहुत ही सताती हैं।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन।
क्या क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन।
।१५।
सब मिल के यारों किशन कन्हैया की बोलो जै।
गोविन्द छैल कुंज बिहारी की बोलो जै।
दधि चोर गोपी नाथ मुरारी की बोलो जै।
तुम भी ‘नज़ीर’ किशन बिहारी की बोलो जै।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन।
क्या क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन।३३।”

मुसलमान होते हुये नज़ीर अकबराबादी श्री कृष्ण जी को महानतम परमेश्वर मानते हैं।कृष्ण जी दु:खहर्त्ता, कृपालु और परम आराध्य हैं!’तू सबका ख़ुदा’ वाली नज़्म का एक अंश प्रस्तुत है-
“तू सबका ख़ुदा, सब तुझ पे फ़िदा, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी।
हे किशन कन्हैया नन्दलला, अल्लाहो ग़नी अल्लाहो ग़नी।
सूरत में नबी, सीरत में ख़ुदा, ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी अल्लाहो ग़नी।
तालिब है तेरी रहमत का , बंदा नाचीज़ ‘नजीर’ तेरा।
तू बहरे करम है नन्दलला, अल्लाहो ग़नी अल्लाहो ग़नी।”
ऐसे थे नज़ीर अकबराबादी, जिनकी नज़र में हिन्दू मुसलमान का कोई भेद नहीं था।आज के दिन मैं भगवान् कृष्ण जी जन्मोत्सव मना ही रहा हूँ, साथ ही भारत की गंगा जमुनी संस्कृति के इन सूत्रधारों रसखान, ताज़ बेगम और नज़ीर अकबराबादी जैसे मुसलमान कवियों की भक्ति भावना को नमन करता हूँ।

Ravindra Upadhyay

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