सिलिंडर में कैद साँसें…, ज़िन्दगी की जंग हारते लोग, लेकिन कठोर फैसलों से दूरी!

किसी हॉलीवुड फिल्म का सींन सा लगता है सब कुछ।एक दूसरे के सम्पर्क में आकर बीमार पड़ते लोग, अस्पताल में बेड नहीं, बेड है तो ऑक्सीजन नहीं, इंजेक्शन और दवाओं की किल्लत, सोशल मीडिया पर अपने मरीज़ को कहीं भर्ती कराने, ऑक्सीजन उपलब्ध कराने, आवश्यक इंजेक्शन और दवाओं के लिए मिन्नत करते लोग। खाली सिलिंडर में ऑक्सीजन भरवाने की जद्दोजहद में हैरान परेशान तीमारदार। अस्पतालों की ऑक्सीजन उपलब्ध कराने की गुहार। इन सब के बीच किंकर्तव्यविमूढ़ प्रशासन और सरकार।

स्थिति बहुत बिगड़ने के बाद मुखिया राष्ट्र को संबोधित करते हैं और पहली बार लोग उनके संबोधब में कई बार उनकी ज़ुबान की लडख़ड़ाहट को महसूस करते हैं।

कई देश कॅरोना की दूसरी घातक लहर से जूझ रहे थे और हम इस गलतफहमी में जी रहे थे कि हमने कॅरोना पर काबू पा लिया है। हम बड़े बड़े धार्मिक, सामाज़िक आयोजन कर रहे थे, व्यापार मेले लगा रहे थे और चुनाव करा रहे थे। हम भूल गए थे कि भारत जैसी जनसंख्या वाले देश में कॅरोना जैसी महामारी से निपटने के लिए कितने भी संसाधन जुटा लिए जाएँ कम ही पड़ेंगे। इस बात की तो कल्पना भी करते  दिल काँप उठता है कि जब इस महामारी का प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों में होगा तो क्या होगा? विशेषज्ञों की माने तो 15 मई के आस पास प्रतिदिन कॅरोना संक्रमित होने वालों का आँकड़ा 8 से 10  लाख के बीच होगा।

प्रतिदिन कॅरोना से अपनी ज़िन्दगी की जंग हारने वालों की संख्या सरकारी तंत्र के लिये एक आँकड़ा मात्र हो सकता है पर कभी जा कर उन परिवारों से पूछिए जिन्होंने किसी अपने को खोया है.. शायद कहीं ये बताने वाला कोई बचा ही न हो ।

हमें इस बात में कोई रुचि नहीं कि वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में कौन जीतता है हमारी दिलचस्पी यह जानने में है कितने लोगों ने कॅरोना को पराजित कर ज़िन्दगी की जंग जीत ली है।

अभी भी समय है। ब्रिटेन के उदाहरण से कुछ सीखिए-

कम से कम 60 दिन का देशव्यापी सख्त लॉक डाउन लगाइये। आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ती के लिये प्रभावकारी और संवेदनशील सप्लाई चेन सुनिश्चित करिये।

मास्क पहनने को सख्ती से लागू कीजिये और उल्लघंन करने वालों के साथ सख्ती से पेश आइये। सोशल डिस्टेनसिंग के नियमों को और सख्त बनाइये

टीकाकरण की रफ्तार को कई गुना बढ़ाइए और यदि आवश्यक हो तो टीकाकरण की द्वितीय खुराक को लाम्बित रखिये ताकि अधिक से अधिक लोगों को कम से कम एक खुराक मिल जाय ।

जाँच का दायरा बढ़ाइए और इस पर पूरा ध्यान केंद्रित कीजिये।

अस्पतालों में सख्ती की जाए ताकि सिर्फ गंभीर मरीज़ ही भर्ती हो सकें, रसूकदार और पैसे वाले नहीं जिनका इलाज घर पर हो सकता है ।

सरकारी उपक्रमों के बेचे जाने पर सवाल पूछे जाने पर सरकार से जवाब मिला था, व्यापार करना सरकार का काम नहीं है। इस महामारी से निपटना और आम नागरिक की जान बचाना तो आप का काम है कि नहीं?

वक़्त के साथ यह समय भी गुज़र जाएगा पर कितनी जिंदगियों को खोने के बाद?… कौन देगा इस सवाल का जवाब? ऐसा न हो कि हर लब पर सिर्फ यही एक सवाल हो…..

ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?

आलेख- विकास चन्द्र अग्रवाल

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