*भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया को प्रभावित करने वाले सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक सामाजिक और राजनीतिक विषय “अयोध्या” को लेकर वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हेमंत शर्मा की पुस्तक “युद्ध में अयोध्या” और “अयोध्या का चश्मदीद” का 20 सितंबर को दिल्ली में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत करेंगे लोकार्पण.. समाजवादी गांधीवादी चिंतक पंडित राजनाथ शर्मा ने कहा “उधड़ते किरदारों की दास्तान है युद्ध में अयोध्या”l* *”द इंडियन ओपिनियन”के लिए आदित्य यादव की खास रिपोर्ट.*



*उधड़ते किरदारों की दास्तान है ‘युद्ध में अयोध्या’*
*राजनाथ शर्मा*
(समाजवादी चिन्तक)

देश की बहुचर्चित और बहुप्रतिक्षित पुस्तक ‘युद्ध में अयोध्या’ और ‘अयोध्या का चश्मदीद’ अब जनता से रूबरू होने को बेताब है। आगामी 20 सितम्बर को नई दिल्ली में उक्त दोनों पुस्तकों का लोकार्पण समारोह सम्पन्न होगा। पुस्तकों का लोकार्पण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत करेंगे। 

यह दोनों पुस्तकें 165 सालों के इतिहास को समेटे हुए है। सन् 1853 शुरू हुए अयोध्या आन्दोलन में कई किरदार आए और गए, लेकिन कुछ न बदली तो वह सिर्फ अयोध्या। अयोध्या का अपना इतिहास है। इन 165 सालों में अयोध्या आज भी विवादों से घिरी होने के बाउजूद आमजन की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। 

अयोध्या पर केन्द्रित पुस्तक के लेखक वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा की लेखनी की धार पिता मनु शर्मा से मिले गुणों और संस्कारों से मेल खाती है। ‘तमाशा मेरे आगे’ और ‘द्वितीयोनास्ति’ जैसी बहुचर्चित पुस्तकों का सम्पादन करने वाले हेमंत शर्मा ने अयोध्या की वास्तविक तस्वीर को सामने लाने का प्रयास किया है। हर पुस्तक एक ग्रन्थ के समान है। जिसको यदि पाठक पढ़ता है तो वह खुद को उन घटनाक्रमों का चश्मदीद पाता है। इसके हर शब्द और हर पन्ने पर सच का सम्मोहन है। तथ्यों और प्रमाणों पर आधारित यह दोनों किताब बेजोड़ है। 

अयोध्या आन्दोलन पर केन्द्रित यह पहली किताब है जो अयोध्या विवाद की बारीकीयों से रूबरू कराती है। लेखक ने अयोध्या आन्दोलन के हर खास पहलू को पुस्तक में जगह दी है। चाहे वह मुस्लिम समुदाय का पक्ष रहा हो या फिर हिन्दू धर्मावलम्बियों की अयोध्या आन्दोलन में भूमिका। या फिर राजनेताओं का सियासी तालमेल। लेखक ने हर खास पहलुओं को इस पुस्तक में उचित स्थान दिया है। बात 1853 की है जब अयोध्या में मंदिर मस्जिद को लेकर विवाद शुरू हुआ। तब से लेकर अब तक अयोध्या के नाम पर बहुत कुछ हुआ। 

दस्तावेजों में दर्ज बात माने तो पहली बार 1853 में अयोध्या में मंदिर और मस्जिद को लेकर हिंसा हुई थी। उस समय यह अवध क्षेत्र के नवाब वाजिद अली शाह के शासन क्षेत्र में अयोध्या आती थी। हिंदू धर्म को मानने वाले निर्मोही पंथ के लोगों ने दावा किया था कि मंदिर को तोड़कर यहां पर बाबर के समय मस्जिद बनवाई गई थी। तब से शुरू हुई यह चिंगारी साल 1992 में ज्वालामुखी की आग बनकर फूट गई। 6 दिसंबर को अचानक मस्जिद के आसपास कारसेवकों की भारी भीड़ इकट्ठा हो गई।  इन कारसेवकों में शिवसेना, वीएचपी, बीजेपी के कार्यकर्ता भी शामिल थे। मस्जिद गिरा दी गई थी। इस दौरान भारत के इतिहास में अब तक सबसे खतरनाक दंगे पूरे देश में भड़क चुके थे जिसमें लगभग 2 हजार लोग मारे गए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहा राव ने पूरे मामले की जांच के लिए जस्टिस लिब्राहन आयोग बैठा दिया। 

इन सभी दस्तावेजों को समेटे ‘युद्ध में अयोध्या’ एक तथ्यात्मक पुस्तक साबित होगी। यही नहीं, इस पुस्तक में अयोध्या आन्दोलन से जुड़े उन सभी व्यक्तियों और उनके किरदारों को परत-दर-परत उधड़ती है। दोनों किताबें यह भी दर्शाती है कि किस प्रकार इस आन्दोलन को राजनीति का अमली जामा पहनाया गया। लेखक की यह किताब अयोध्या के इतिहास को दो सिद्धांतों पर प्रस्तुत करती है। वे सिद्धांत हैं- इतिहास अयोध्या का है। अयोध्या राम की है। इस किताब को पढ़ने के बाद मुस्लिम विद्वान और नेता भी मानेंगे कि वे अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं। जबकि सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या का मामला आज विचाराधीन है।