सत्य और अहिंसा से गांधी ने पश्चिम के अंग्रेजों को मनाया, लेकिन क्या अपनी धरती के “जिन्ना मानसिकता” से परास्त हुए? The Indian Opinion


बापू को पूरी दुनिया में याद किया जा रहा है , बापू को करोड़ों दिलों में याद किया जा रहा है, बापू को वैश्विक समस्याओं के समाधान के विकल्प के रूप में याद किया जा रहा है, बापू को भारत के भूतकाल वर्तमान और भविष्य के लिए भी याद किया जा रहा है।

निसंदेह बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी से महात्मा गांधी और भारत के बापू बने उस शख्सियत ने इतिहास पर अपने व्यक्तित्व का ऐसा प्रभाव डाला कि आज उनकी चर्चा एक व्यक्ति के रूप में नहीं एक सिद्धांत के रूप में होती है बिल्कुल उसी तरह जिस तरह गणित और विज्ञान के फार्मूले को याद किया जाता है उनकी सहायता से समाधान निकाले जाते हैं उसी तरह महात्मा गांधी के दिए हुए गांधीवाद की सहायता से जटिल विषयों का समाधान किया जा सकता है यह दुनिया के तमाम देशों ने माना है।

गुजरात के वैष्णव हिंदू परिवार में पले बढ़े महात्मा गांधी ने अपनी तपस्या त्याग से राष्ट्र के लिए ही नहीं बल्कि विश्व के लिए महान योगदान दिया और उसके लिए पूरी दुनिया ने उन्हें वह सम्मान दिया जो विश्व के गिने-चुने महापुरुषों को मिला हर भारत ने तो हमेशा के लिए उन्हें अपना राष्ट्रपिता स्वीकार किया।

लेकिन क्या मोहम्मद अली जिन्ना और उनके समर्थकों ने गांधी को नकार दिया या फिर गांधी के दर्शन को नकार दिया था..? कहा जाता है कि पूरी दुनिया की सबसे ताकतवर अंग्रेजी सत्ता ने गांधी के सत्य और अहिंसा के सत्याग्रह के आगे घुटने टेक दिए दुनिया के पश्चिमी हिस्सों से आए अंग्रेजी आक्रांता ओं ने उनकी बड़ी-बड़ी सेनाओं ने और इंग्लैंड के प्रमुखों ने अंततः एक लंबे संघर्ष के बाद जब भारत को मुक्त करने का फैसला लिया तो उसके पीछे व्यापक तौर पर यह माना गया महात्मा गांधी के नेतृत्व में सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित आंदोलन के आगे अंग्रेजों ने अपनी नैतिक पराजय स्वीकार की उन्होंने यह एहसास किया कि उन्हें भारत को मुक्त करना चाहिए।

यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि जिस समय काल में महात्मा गांधी और उनके समर्थक सत्याग्रह और अहिंसात्मक आंदोलनों से ब्रिटिश राज की खिलाफत कर रहे थे उसी समय काल में सुभाष चंद्र बोस भगत सिंह चंद्रशेखर आजाद बटुकेश्वर दत्त अशफाक उल्ला खान जैसे हजारों क्रांतिकारियों ने सशस्त्र क्रांति के जरिए ईट का जवाब पत्थर से देने की नीति का पालन करते हुए अंग्रेजी शासन की जड़ें हिला दी थी।

इसमें कोई संदेह नहीं कि अंग्रेजों के विरुद्ध गांधी का अहिंसात्मक आंदोलन ज्यादा व्यापक था और सशस्त्र क्रांति की तुलना में गांधी के अहिंसात्मक सत्याग्रह को ज्यादा संख्या में लोगों का समर्थन था और तत्कालीन भारतीय और विदेशी मीडिया ने भी गांधी के कार्यों को अधिक महत्व और प्रभाव के साथ रेखांकित किया, लेकिन एक बड़ा प्रश्न जो विश्व इतिहास के साथ-साथ भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की बहुत बड़ी घटना है और एक बहुत बड़ा कलंक भी है वह हमेशा पूरी दुनिया के सामने खड़ा है।

खासतौर पर भारत और पाकिस्तान के लोगों के सामने खड़ा है।

वह प्रश्न है कि जब दुनिया की सबसे ताकतवर सत्ता गांधी के सत्य और अहिंसा सविनय अवज्ञा आंदोलन से प्रभावित होकर उनकी बात मानने को तैयार हो गई तो ऐसी क्या वजह थी कि मोहम्मद अली जिन्ना और उनके समर्थकों की बनाई हुई मुस्लिम लीग ने गांधी को अनसुना कर दिया क्यों गांधी के संदेशों को गांधी के सिद्धांतों को और गांधी की अपील को मानने से मोहम्मद अली जिन्ना ने इनकार किया और अपने हट पर अडिग रहकर गांधी से अपने मन की बात मनवाने में कामयाब रहे।

वह मोहम्मद अली जिन्ना जो कभी गांधी के शिष्य भी हुआ करते थे उनके द्वारा बनाई गई मुस्लिम लीग ने क्या गांधी को “परास्त” कर दिया था या फिर जिन्ना देश की आबादी के बड़े हिस्से को, तत्कालीन भारत के मुस्लिम समाज के एक बड़े हिस्से को सांप्रदायिक कट्टरता की उस दिशा में ढकेल चुके थे जहां सत्य और अहिंसा वार्ता और सहनशीलता जैसे शब्द बेमानी हो चुके थे।

यह जिन्ना की जिद और उनकी निर्लज्जता की विजय थी या फिर गांधी दर्शन यानी गांधी का शांति अहिंसा पर आधारित राष्ट्रवादी फार्मूला व्यापक स्तर पर तत्कालीन भारतीय मुसलमानों को प्रभावित नहीं कर पाया ..?
हालांकि देश के कुछ मुस्लिम नेताओं ने भी उस दौरान जिन्ना का विरोध किया था, पाकिस्तान के निर्माण का विरोध किया था, और भारत के साथ रहने का निर्णय लिया था लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी और देश के अधिकांश प्रभावशाली मुस्लिम नेताओं ने महात्मा गांधी की विनम्र अपील को उनके सिद्धांतों और उनके दर्शन को नकार कर मुसलमानों के लिए अलग देश के सिद्धांत को ना सिर्फ स्वीकार किया अपनाया बल्कि उसके लिए पूरे देश में खून खराबा भी करवाया।
यानी साफ तौर पर उन्होंने महात्मा गांधी को नकारते हुए मोहम्मद अली जिन्ना को बेहतर समझा और ऐसे लोगों की उस समय बहुत बड़ी संख्या थी इसीलिए ऐसे लोग पाकिस्तान बनवाने में कामयाब रहे और महात्मा गांधी तमाम प्रयासों के बाद अंततः निराश होकर दुखी मन से पाकिस्तान निर्माण यानी भारत विभाजन के लिए सहमत हुए।

यहां पर यह विषय सामने आता है की सत्य और अहिंसा यानी गांधी दर्शन तत्कालीन भारत में क्या देश की अधिकांश आबादी को जोड़ पाने में सफल नहीं हो पाया था..? क्या भारत का विभाजन गांधी दर्शन की विफलता थी..?
यह विषय हिंदू मुसलमान का नहीं है विषय भारत और पाकिस्तान का भी नहीं है, आज के परिदृश्य में विषय है कि सत्य और अहिंसा जैसे सिद्धांत पूरे विश्व के लिए है ..सभी धर्म और मजहब के लिए है… या फिर केवल उनके लिए जो सभ्यता और नैतिकता के प्रति कटिबद्ध हैं प्रतिबद्ध हैं..? अगर ऐसा है तो उन पर कैसे नियंत्रण किया जाएगा जो धर्म और मजहब की आड़ में कभी भी राजनैतिक अवसर वाद का खेल खेलने के लिए तैयार हैं।

अविभाजित भारत ने गांधी को अपना नेता माना था गांधी ने संपूर्ण भारत के लिए लाठियां खाई जेल गए लेकिन विभाजन के बाद के पाकिस्तान ने गांधी को अपना नेता नहीं माना जबकि उन्होंने उस भूभाग के लिए भी लाठियां खाई थी जहां आज पाकिस्तान है।
पाकिस्तान की वर्तमान पीढ़ी सोचना चाहिए कि गांधी और दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों ने भी उनके पूर्वजों के लिए बहुत तकलीफ उठाई है उन्हें यह सोचना चाहिए सही की जिस धरती पर वह चलते हैं , जिन खेतों की वह फसलें खाते हैं ,जिन फिजाओं में वह सांस ले रहे हैं, उनको भी आजाद कराने के लिए कभी गांधी ने संघर्ष किया था।

पूरी दुनिया के सामने यह चुनौती है, खासतौर पर भारतीय उपमहाद्वीप के सामने कि वह गांधी के दर्शन को उन तक कैसे पहुंचाएं जो उसे समझने के लिए तैयार नहीं है ..? जो लोग कश्मीर में 370 और 35a के समर्थक हैं जो शेष भारत के लोगों को वहां बसने नहीं देना चाहते क्या वह गांधी दर्शन को मानते हैं?

जो लोग भारत के राष्ट्रीय ध्वज को सम्मान देने में संकोच करते हैं क्या वह गांधी दर्शन को मानते हैं..? जिन्होंने सेकुलर यानी धर्मनिरपेक्ष भारत के दोनों तरफ कम्युनल यानी कट्टर धार्मिक मुल्क बनाएं क्या वह गांधीवाद के पात्र हैं? यह सच्चाई है कि जिन्ना जब तक कमजोर थे गांधी और गांधीवाद के समर्थक थे, जैसे-जैसे भारतीय राजनीति में उनका नाम और कद बढ़ता गया वैसे-वैसे वह गांधी से दूर होते गए।

आपको ऐसे बहुत से लोग गांधी के नाम की दुहाई देते हुए मिल जायेंगे जो अपने निजी जीवन में या फिर कई बार सार्वजनिक जीवन में भी गांधी के सिद्धांतों की खुलेआम अवहेलना करते हैं,जहां उनके हितों का मसला होता है वहां वह गाधी को साफ तौर पर नकार देते हैं।

यानी गांधी आज अवसर वाद के शिकार हैं गांधी दर्शन आज राजनीतिक लाभ का अस्त्र भी बनता जा रहा है।

कभी-कभी ऐसा लगता है कि सत्य अहिंसा सत्याग्रह जैसे गांधी दर्शन के प्रमुख सिद्धांत शायद उसी “मानसिक धरातल” को प्रभावित करते हैं जो नैतिकता और मानवता के लिए “पहले से तैयार है” क्योंकि सत्य और अहिंसा का प्रयोग “एकतरफा” नहीं हो सकता, उसी तरह जिस तरह हिंसक भेड़िए और शाकाहारी हिरण में सामंजस्य नहीं हो सकता।

यह लेखक के अपने विचार हैं

देवव्रत शर्मा