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मित्र अंजलि की #लेखनी
तानाजी मालुसरे
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हालिया रिलीज़ फिल्म “तान्हाजी” के एक सीन में उदयभान की कैद में पड़ी कमल से उसका भाई जगत कहता है, “मैंने तानाजी की आँखों में इतिहास देखा है!”
इतिहास देखना, सिर्फ देखने तक नहीं होता। थियेटर की किसी सीट पर अतीत के गौरवमयी पन्नों का जीवंत अंकन देखा भर नहीं जा सकता।उसे बस जिया जा सकता है। जीवन के तीन घंटे देकर, हम सैकड़ों बरस के कालखण्ड को तारीख़-दर-तारीख़ संजोते हैं।विस्मृत नायकों की शौर्यगाथा के साक्षी बनते हैं।अनुभव करते हैं इतिहास की पीड़ा!
यूँ ही अविस्मरणीय रहा मेरी पहली थियेटर फिल्म “तान्हाजी” के साथ, मेरा सवा दो घण्टे का सफ़र!
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सर्वप्रथम तो फिल्म के डायरेक्टर “श्री ओम राउत जी” को कसे हुए निर्देशन के लिए साधुवाद।किसी भी फिल्म की कसावट की परख यही है, कि दर्शक का ध्यान ज़रा सा भी स्क्रीन से भटकने न पावे।निर्देशक इसमें सौ प्रतिशत सफल रहे हैं।जिस किरदार की जो डिमांड थी, वह उन्होंने कलाकारों से करवा लिया है।निर्देशन तब एक बड़ी चुनौती बन जाती है, जब फिल्म की पृष्ठभूमि किसी विशेष कालखण्ड की ऐतिहासिक कथा हो।तान्हाजी जी इसी कठिन जोनर की मिक्स मूवी है।इसमें भी डायरेक्टर की मेहनत दिखती है।फिल्म दर्शकों को सत्रहवीं शताब्दी के माहौल में पहुंचा देती है।
तानाजी मालुसरे की कहानी बचपन में कई बार पढ़ी थी। हमेशा से उनकी वीरता अचम्भित किया करती थी। अजय देवगन ने उन दुर्जेय विजेता के किरदार के साथ पूर्ण न्याय किया है। अक्सर ऐसा होता है, कि फिल्म के मूल किरदार को भूल हम अभिनेता के लिए ही तालियाँ बजाते हैं। अजय देवगन ने अपने लिए तो तालियाँ बटोरीं ही हैं, साथ ही तानाजी के अप्रतिम साहस को इतिहास के धूमिल पन्नों से निकालकर, चमकता हुआ सूरज बना दिया है। हर डायलॉग के साथ यही अनुभव होता है, कि ऐसी ही महान छवि रही होगी तानाजी की। अजय जी की आँखों में स्वाभिमान, स्वराज, भगवा और आज़ादी के प्रति वही ज्वाला महसूस हुई है, जो मुगलिया सल्तनत से जूझने वाले एक मराठा हिन्द स्वराजी के भीतर धधकती थी।
“एक बेटा आपके लिए स्वराज खड़ा कर सकता है, तो क्या दूसरा बेटा जूतियाँ भी नहीं पहना सकता!”
यह संवाद कहीं ठक से धंस जाता है।तालियाँ नहीं बजतीं।आँसू बहते हैं। अंत तक अजय देवगन की आँखें, उनकी भाव भंगिमा, गेटअप और साहस चुम्बक की तरह बांधकर रखता है।भगवा ध्वज कोढ़ण के किले पर गाड़े हुए, शिवाजी के बाहुओं में प्राण त्याग देखने के बाद मन में आया कि वहीं साष्टांग प्रणाम कर लूँ, उस महानायक को भी और उनके नायकत्व को भी!
काजोल और अजय देवगन, असल जिंदगी में भी बेहतरीन दम्पत्ति हैं।स्क्रीन पर उनकी आत्मीयता और गाढ़ी दिखती है।तानाजी की पत्नी के किरदार काजोल उस युद्ध का नेतृत्व बखूबी करतीं हैं, जो किसी रणक्षेत्र में नहीं लड़ा जाता।जिसमें कृपाण, तलवार, भाले और ढाल जैसे शस्त्र नहीं होते।वह युद्ध जो किसी को नहीं दिखता, जिसपर इतिहास नहीं लिखे जाते।अंत:पुर का युद्ध! एक स्त्री का युद्ध! अपने कर्तव्य से, अपनी भावना से, अपनी ममता से।रणक्षेत्र में महारथियों की शक्ति की परीक्षा होती है,और गृह क्षेत्र में स्त्रियों के धैर्य की।अपने पति और पुत्रों को तिलक लगाकर मृत्यु के मुख में भेजने के अंतर्युद्ध को व्याख्यायित किया जा सकता है भला?
पति की खेत रहने की आशंका के बाद भी अपने समधी को वचन देना कि,
“कोढ़ण का परिणाम जो भी हो, उसके अगले दिन आपकी बेटी हमारे घर की बहू बनेगी!”
यह उद्घोष था, मन से विजयी होने का। काजोल ने यह उद्घोषणा वीर वामिनी की भांति ही की है। उनकी आँखों में अटल विश्वास दिखा है।
मराठा दीपमणि शिवाजी राजे भोसले की भूमिका में शरद केलकर केवल जंचें नहीं है, दिल में बस गए हैं।उन्हें देखकर एक ही बात आई मन में, “शायद हमारे राजे ऐसे ही रहे होगें!”शुरू से ही मैं राजे के मुख से सुनने को आतुर थी, “गण आला पण सिंह गेला!” यह सबसे भावुक कर देने वाला क्षण रहा। सशक्त भूमिका की गरिमा शरद केलकर ने और बढ़ा दी।
उदयभान की भूमिका में सैफ पिछले सारे मानदंड तोड़ते हुए नज़र आए हैं।जो वहशीपन, जो क्रूरता, जो आतंक एक खूंखार लड़ाके में होना चाहिए, उस सबका लाजवाब प्रदर्शन सैफ अली खान ने किया है।उदयभान जैसे लोगों की गद्दारी और षड्यंत्र चकित करते हैं, और घृणा भी भरते हैं।
ल्यूक केन्नी का फिल्म में सैडो रोल ही है, पर उनकी तनी भौहें, स्थिर पुतलियाँ आलमगीर की क्रूरता बेलौश बयां करतीं हैं।इस किरदार के साथ माता जीजाबाई के किरदार में पद्मावती राव ने मुझे विशेष रूप से आकृष्ट किया है।माता जीजाबाई के स्वाभिमानी स्वभाव की कई झलकें सहज रूप से देखने को मिलीं हैं।
अब यदि बात करें, फिल्म के सेटअप की तो वह अद्भुत है। दुर्गों की विशालता, युद्ध की विभीषिका, योद्धाओं के शस्त्र, वस्त्र, बोली भाषा पर बारीकी से काम किया गया है। वह विशाल तोप मुख्य आकर्षण है, जिसका मुख राजगढ़ की ओर घुमा दिया जाता है।
यह ऐतिहासिक फिल्म वास्तव में इतिहास के उस रूप से परिचित कराती है जो इसका लक्ष्य है।
फिल्म का संगीत शरीर में रोमांच जगाता है।
“शंकरा… . रे… .. शंकरा” गीत के बोल और धुन युद्ध का आवाहन करते हैं। उठती गिरती ताल के साथ हाथों भी लय में आ जाते हैं!
“माई भवानी” गीत आजकल के सिनेमा में भजनों के अकाल पर पैबंद लगाता है!
कुल जमा, यदि अभी तक आपने यह अभूतपूर्व गाथा नहीं देखी है, तो अवश्य देखें, और बच्चों को दिखाएं। फिल्म देखकर, कतई नहीं लगेगा कि आपका पैसा या समय बर्बाद हुआ है।आप अपने साथ सैकड़ों सवाल ले आएंगे।आँखों में जलते अंगारे लेकर आएंगे।मन में गर्व की अनुपम अनुभूति लेकर आएंगे। हृदय में अपने नायकों के प्रति सम्मान लेकर आएंगे। आप महसूस करेगें, उन पीड़ाओं को जो हमारी धरती ने सही है।आप जहाँ बैठे होगें, श्रद्धा से धरती चूम लेगें अपनी। समझेगें उन षड्यंत्रों को जो हमारे साथ हजारों बरसों से होते आए हैं।आप इतिहास के पन्ने पलटेगें, और खोजेंगे ऐसे अनेक “अंनसंग्स हीरोज़” को!
पूरे तान्हाजी की टीम को शत-सहस्र धन्यवाद।आने वाला समय असल इतिहास दिखाएगा। तान्हाजी ऐतिहासिक नायकों की गाथा में नींव का पत्थर सिद्ध होगी। जो गौरव हमारे इतिहास में दफन कर दिया गया है, वह धीरे-धीरे ही सही सामने आने लगा है।धूल हटेगी, सूरज चमकेगा।पूरी फिल्म में सहिष्णु दिखने या दिखाने की ज़रा भी कोशिश नहीं कि गयी है। चीजें यथावत् हैं, यही निर्माताओं को सफल बनाता है।
“देश पर प्रहार है, प्रहार कर, प्रहार कर!
घमण्ड कर… .. प्रचण्ड कर!”