मीडिया पर दबाव पत्रकारों का दमन, कांग्रेस राज Vs बीजेपी राज! वयोवृद्ध पत्रकार का लेख पढ़िए

आज बहुत से जोशीले पत्रकार यह कहते सुने जा रहे हैं कि बीजेपी की सरकार में मोदी राज में आपातकाल से भी बदतर स्थिति हो गयी है मीडिया की स्वतंत्रता छीन गई है पत्रकारों पर बढ़ा दबाव है और तमाम तरह के जुमले छोड़े जा रहे हैं।

तार्किक होगा कि खूंखार टीवी एंकर, खोजी खबरिये और जुझारु—मीडियाकर्मियों वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यानी बीजेपी की सरकार और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी यानी कांग्रेस की सरकार के कार्यकाल में मीडिया की स्वतंत्रता और पत्रकारों की सुरक्षा और गरिमा की परिस्थितियों की तुलना करें! देश के वयोवृद्ध पत्रकार के विक्रम राव ने तथ्यपरक लेख सभी के सामने रखा है और लोगों से खास तौर पर मीडिया के लोगों से अपनी अंतरात्मा को झकझोर कर निष्पक्ष विश्लेषण करने की अपील की है।

के विक्रम राव कई राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों के पदाधिकारी रह चुके हैं पत्रकारिता की स्वतंत्रता के लिए जेल में भी रहे और कई बड़े पत्रकारिता आंदोलनों का नेतृत्व कर चुके हैं उन्होंने कहा है कि 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 आज की कार्यशैली की तुलना करें।

आपातकाल में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा. रघुवंश को नजरबंद कर जेल में सड़ाया गया। उनपर इल्जाम लगा था कि वे खंभे पर चढ़कर संचार के तार काट रहे थे। डा. रघुवंश जन्मजात लुंज थे। वे बाल्यावस्था से ही अपने पैरों की उंगलियों के बल लिखा करते थे।

कालीकट (केरल) के इंजीनियरिंग के छात्र वी. राजन को नक्सलवादी कहकर कैद किया गया था। टांगों को लोहे की चादर से कुचला गया। वह मर गया। पुलिस ने इस हरकत से साफ इनकार कर दिया था। मगर न्यायालय ने सच्चाई ढूंढ ही ली। मुख्यमंत्री के. करुणाकरण को त्यागपत्र देना ही पड़ा।

मध्य प्रदेश की एक पुलिस हिरासत में मां और बेटे को विवस्त्र करके साथ सुलाया गया था। सत्तारुढ मां—बेटे (संजय गांधी) इस पर मौन रहे। भारत के प्रधान न्यायाधीश जेसी शाह के न्यायिक आयोग ने इन वारदातों के विवरण को सार्वजनिक कर दिया था।

अखबारों की बिजली काटकर 26 जून 1975 को दैनिक ही नहीं छपने दिये गये थे। ढेर सारे ऐसे हादसे हुये थे ।

मीडिया का हाल उस वक्त कैसा था? लालकृष्ण आडवाणी ने बेहतरीन बात कही पत्रकारों से : ”इंदिरा गांधी ने तो आप लोगों से झुकने के लिये कहा था और आज लोग लगे रेंगने!”

क्या वर्तमान युग में ऐसा मुमकिन है? हुजुम है आज जांबाज पत्रकारों का जो पलटवार करेंगे, झुकने की तो बात है ही नहीं। आज सेंसरशिप कोई सरकार लगा सकती है? तत्काल उसे तोड़ा जायेगा। हां, जिन मीडिया मालिकों का व्यवसायिक हित है वे जरुर उसके संवाददाताओं को धमकायेंगे, परेशान करेंगे। खबर दबायेंगे।

स्वयं अपना उदाहरण 1976 का पेश करुं । प्रतिरोध की आवाज इर्मेंजेंसी (1975-77) में पूरी तरह कानून कुचल दिया गया था। मीडिया सरकारी माध्यम मात्र बन गया था। अधिनायकवाद के विरोधी जेलों में ठूंस दिये गये थे। समूचा भारत गूंगा बना दिया गया था। न्यायतंत्र नंपुसक बना डाला गया था। हालांकि उसके कान और आँख ठीक थे। उस दौर में हम पच्चीस सामान्य भारतीयों ने देश के इतिहास में सबसे जालिम, खूंखार और मेधाहीन तानाशाही का सक्रिय विरोध करने की छोटी सी कोशिश की थी।

पुलिस ने इसे ”बड़ौदा डायनामाइट षडयंत्र” का नाम दिया था। सजा थी फांसी। तब मैं बड़ौदा में ”टाइम्स आफ इन्डिया” का संवाददाता था। मेरा आवास हमारी भूमिगत प्रतिरोधात्मक गतिविधियों का केन्द्र था। हम सब की गिरफ्तारी के बाद कुछ लोग समझे थे कि बगावत की एक और कोशिश नाकाम हो गई थी। पर ऐसा हुआ नहीं था।

उसी दौर का वृतांत है। बड़ौदा जेल में गुजरात के डीजी (पुलिस) पीएन राइटर मुझसे जिरह करने आये। उनका प्रश्न था : ”जब समूचे भारत के पत्रकार पटरी पर आ गये थे, तो आप (दो संतानों के पिता) को क्या सूझी थी कि इंदिरा गांधी के विरोध में बगावत का परचम लहराये?” मेरा उत्तर सामान्य था। वे भी ”टाइम्स आफ इंडिया” के पाठक थे। मैंने पूछा : ” डीजीपी साहब, 25 जून 1975, प्रेस सेंसरशिप लगाये जाने के पूर्व ”टाइम्स” पढ़ने में कितना समय लगाते थे? वे बोले : ” सोलह पृष्ठ पढ़ने में करीब बीस—बाईस मिनट लगते थे।” मेरा अगला प्रश्न था : ”जून 25 के बाद, जब सेंसरशिप लागू हो गयी थी, तब?” उनका जवाब था : ”अब करीब दस मिनट।” मैं बोला : ”साहब! आपके दस मिनट वापस लाने के लिये मैं जेल में आया हूं।” बस मेरा पुलिसिया इंटरोगेशन खत्म हो गया।

क्या आज कहीं पत्रकारिता में ऐसी स्थिति की लेशमात्र भी आशंका है? संभव भी हो सकती है? यर्थार्थवादी दृष्टि अपनाये। नयी पीढ़ी के, खासकर युवा श्रमजीवी पत्रकार कायर नहीं हैं। बस यही सम्यक टिप्पणी है: इंदिरा शासन के दौर की मीडिया पर और आज के टीवी अखबारों पर। निरंकुशता के सोपान पर इंदिरा गांधी से नरेन्द्र मोदी बहुत निचले पायदान पर हैं।

ब्यूरो रिपोर्ट द इंडियन ओपिनियन

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